पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२४४

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द्वितीय कोशस्थान : प्रत्यय [३०३] हमारे विचार से सान्तानसभागिकों का वाद अयुक्त है क्योंकि इस वाद के अनुसार प्रथम अनास्त्रव (१.३८ वी) चित्त का समनन्तर-प्रत्यय न होगा । ४. रूपी धर्मों के समान चित्त-विप्रयुक्त संस्कारों का (२.३५) व्याकुलसम्मुखीभाव है : अतः वह समनन्तर-प्रत्यय नहीं हैं । वास्तव में कामावचर प्राप्ति के अनन्तर धातुक और अप्रतिसंयुक्त (अनास्त्रब आदि) धर्मो की प्राप्तियों का युगपत् सम्मुखीभाव होता है । (२) अनागत धर्म समनन्तर-प्रत्यय होते हैं इसका प्रतिषेध आप क्यों करते हैं ? अनागत धर्म व्याकुल हैं : अनागत अध्व में पूर्वोत्तर का अभाव है (पृ. २६१ देखिये) १२ ए. अतः भगवत् कैसे जानते हैं कि अमुक अनागत धर्म की पूर्वोत्पत्ति होगी, अमुक की पश्चात् होगी? यत्किचित् यावत् अपरान्त उत्पन्न होता है उस सब के उत्पत्ति-क्रम को वह जानते हैं । (संघभद्र, १९, पृ० ४४४) १. प्रथम विसर्जन । अतीत और साम्प्रत के अनुमान से उनका ज्ञान होता है । ----वह अतीत अध्व को देखते हैं : "अमुक जाति के कर्म से अमुक विपाकफल उत्पन्न होता है, अमुक धर्म से अमुक धर्म निवृत्त होता है ।"-वह साम्पत को देखते हैं : “सम्प्रति यह इस जाति का कर्म है। इस कर्म से अनागत में अमुक विपाकफल उत्पन्न होगा। सम्प्रति यह धर्म है; इस धर्म से अमुक धर्म निर्वृत्त होगा" ! --किन्तु भगवत् का ज्ञान प्रणिधि-ज्ञान (७. ३७) कहलाता है । यह अनुमान ज्ञान नहीं कहलाता । अतीत और साम्प्रत के अनुमान से भगवत् उन धर्मों को प्रत्यक्ष देखते हैं [३०४] जो अनागत अध्व में आकुल अवस्थान करते हैं और वह इस ज्ञान का उत्पाद करते हैं कि "इस पुद्गल ने अमुक कर्म किया हैं; उसका अवश्य अमुका अनागत विपाक होगा" यदि आपकी बात मानें तो इसका यह परिणाम होगा कि यदि भगवत् अतीत का विचार न करें तो उनको अपरान्त का ज्ञान न होगा ! अतः वह सर्वविद् नहीं है । 'विभाषा, ११, ५ में २ मत हैं। वसुबन्धु दूसरे का व्याख्यान करते हैं। सहभूधर्म जिनमें पूर्व-पश्चिमता का अभाव है एक दूसरे के समनन्तर-प्रत्यय नहीं हो सकते। विभाषा, ११, २ के प्रथम आचार्य-~-अतीतसाम्प्रतानुमानात् शुआन्-चाङ "वह अतील और साम्प्रत से अनुमान करते हैं किन्तु प्रत्यक्ष देखते हैं।" ४ अतीत किलाध्वानं पश्यति.... विभाषा, वही क्षौर १७९.३। शुमान्-चा : "भगवत् देखते हैं कि अमुक अतीत कर्म से अमुक फल की उत्पत्ति होती है: अमुक धर्म से अमुल धर्म की अनन्तर उत्पत्ति होती है। भगवत् देखते हैं कि अमुक प्रत्युत्पन्न कर्म से अमुक फल की उत्पत्ति होती है : अमुक धर्म से अमुक धर्म को अनन्तर उत्पत्ति होती है। इस प्रकार देखकर भगवत् अनागत अध्व के आकुल धर्मों के संबन्ध में यह ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं : अमुक धर्म के अनन्तर अमुक धर्म को उत्पत्ति होगी। यत् किंचित् ज्ञान वह इस प्रकार प्राप्त करते हैं वह अनुमान ज्ञान नहीं है क्योंकि भगवत् अतीत और प्रत्युत्पन्न हेतु और फलों के उत्पत्ति-क्रम से अनुमान कर पश्चात् अनागत के याकुल घों का प्रत्यक्ष ज्ञान करते हैं और कहते हैं कि "अनागत अध्व में अमुक सत्व अमुक कर्म करेगा और अमुक विपाक का भागी होगा। यह प्रणिधिज्ञान है, अनुमान ज्ञान नहीं है। 9