पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२४५

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२३२ अभिधर्मकोश २. अन्य आचार्यों के अनुसार सत्वों की सन्तान में अनागत में उत्पन्न होनेवाले फलों का एक चिन्ह ( = लिंग) भूत धर्म होता है । यह चित्तविप्रयुक्त संस्कार-विशेष है। भगवत् उसका ध्यान करते हैं और ध्यान और अभिज्ञाओं के (७.४२ : च्युत्युपपाद-ज्ञान) अभ्यास के विना ही अनागत फल को जानते हैं । सौत्रान्तिक-यदि ऐसा हो तो भगवत् नैमित्तिक होंगे। वह साक्षादर्शी (साक्षात्कारी) न होंगे । ३. अतः भगवत् सर्व वस्तु को अपनी इच्छा के अनुसार प्रत्यक्षतः, न कि अनुमानतः या निमि- [३०५] त्ततः, जानते हैं । यह सौत्रान्तिकों का मत है । इसकी युक्तता भगवत् के इस वचन से (एकोत्तर, १८, १६; दीघ, १.३१ से तुलना कीजिये) सिद्ध होती हैं, : "बुद्ध-गुण और बुद्धगोचर अज्ञेय हैं।" वी. यदि अनागत में पूर्व-पश्चिमता का अभाव है तो यह कैसे कह सकते हैं कि "लौकिक अग्रधर्मों के अनन्तर केवल दुःखे धर्मज्ञान-क्षान्ति, कोई अन्य धर्म नहीं, उत्पन्न होती है" (६.२७) । एवमादि यावत् : "वनोपमसमाधि के अनन्तर ही क्षयज्ञान की उत्पत्ति होती है (६.४६ सी)" वैभाषिक (विभाषा, ११, २) उत्तर देते हैं : जिस धर्म का उत्पाद जिस धर्म में प्रतिबद्ध है वह उस धर्म के अनन्तर उत्पन्न होता है । यथा समनन्तर प्रत्यय के बिना भी अंकुर बीज के अनन्तर उत्पन्न होता है। (३) अर्हत् के चरमचित्त और चरमचैत्त समनन्तरप्रत्यय क्यों नहीं है (विभाषा,१०, १६)? क्योंकि उनके अनन्तर अन्य चित्त और चैत्त का संबन्ध नहीं होता। किन्तु आपने हमें बताया है (१.१७) कि जो विज्ञान (चित्त) अनन्तर अतीत होता है और जो उत्तरचित्त का आश्रयभूत है वह मनस् है। क्योंकि अर्हत् के चरमचित्त के अनन्तर अपरचित्त नहीं होता इसलिये इस चरमचित्त को मनस् की आख्या या समनन्तरप्रत्यय की आख्या नहीं देना चाहिये । किन्तु आप उसे मनस् अवधारित करते हैं । २ विभाषा, १७९, ४ का दूसरा मत; न्यायावतार, १०३ ए २० में तीसरे मत का व्याख्यान परमार्थ (२९ बो १२) का मतभेद है : "सत्वों को सन्तान में एक चित्तसंप्रयुक्त संस्कृतधर्म है जो अनागत फल का चिह्न है।" न्यायावतार : "सत्वों में निमित्त (छाया-निमित्त) के सदृश अनागत हेतु-फल का एक त- मान चिह्न होता है अथवा एक रूप या एक चित्तप्रियुक्त संस्कार होता है।" लिग; परमार्थ और न्यायावतार - पूर्वलक्षण; शुभान-चाङ = निमित्त जापानी संपादक : लोकधातुसंवृत्तिज्ञान (७.३) द्वारा शरच्चन्द्र 'गणक' का सुझाव करते हैं। कदाचित नैमित्तिक-लहाव्युत्पत्ति, १८६, १२३, नैमित्तक-दिव्य-शुआन-चाङ : यदि ऐसा हो तो भगवत् चिह्नों से अनागत का ज्ञान प्राप्त फरेंगे. ६ Y