पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२४९

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अभिधर्मकोश आलम्बनप्रत्यय को वर्जित करना चाहिये क्योंकि असंशिसभापत्ति (२.४२) और निरोध- समापत्ति (२.४३) में आलम्बन का ग्रहण, ज्ञान नहीं होता। तीन प्रत्यय यह हैं : १. हेतु- प्रत्यय, दो हेतु, सहभहेतु, (समापत्ति के जात्यादि लक्षण २.४५ सी), सभागहेतु (समानभूमिक अर्थात् यथायोग चतुर्थध्यानभूमिक या भावाग्निक, पूर्वोत्पन्न कुशल धर्म); २. समनन्तरप्रत्यय, ससंप्रयोग समापत्ति-चित्त ; प्रवेशचित्त का सर्व समापत्ति-क्षणों में से किसी से भी व्ययधान नहीं होता; ३. अधिपतिप्रत्यय, पूर्ववत् । इन दो समापत्तियों की उत्पत्ति चित्ताभिसंस्कार, चित्ताभोग से (चित्ताभिसंस्कारज, चित्ता- भोगण) होती है : अतः चित्त इनका समनन्तरप्रत्यय होता है। वह चित्तोत्पत्ति में प्रतिवन्ध हैं (चित्तोत्पत्तिप्रतिबन्ध) : अतः वह व्युत्थानचित्त के समनन्तरप्रत्यय नहीं हैं यद्यपि वह उसके निरन्तर हैं (पृ० ३०६ देखिये) ६४ सी. अन्य धर्म दो से उत्पन्न होते हैं।' अन्य धर्म अर्थात् अन्य चित्तविप्रयुक्त-संस्कार और रूपीधर्म (रूप) हेतुप्रत्यय और अधि- पतिप्रत्यय के कारण उत्पन्न होते हैं (विभाषा, १३६, ५) । [३११] सव धर्म जो उत्पन्न होते हैं पाँच हेतुओं से और चार प्रत्ययों से जिनका हमने निरूपण किया है उत्पन्न होते हैं। ईश्वर, पुरुष, प्रधानादिक एक कारण से सर्व जगत् की प्रवृत्ति नहीं होती। इस वाद को आप कैसे व्यवस्थापित करते हैं। यदि आप समझते हैं कि वाद तर्क से सिद्ध होते हैं तो आप अपने इस वाद का परित्याग करते हैं कि जगत् की उत्पत्ति एक कारण से होती है । ६४ डी. ईश्वर या अन्य किसी कारण से नहीं क्योंकि क्रम आदि हैं।' अनेक हेतुओं से यह वाद अयुक्त है कि भावों की उत्पत्ति एक कारण से, ईश्वर, महादेव या वासुदेव से, होती है। १. यदि भावों की उत्पत्ति एक कारण से होती तो सर्वजगत् की उत्पत्ति युगपत् होती किन्तु हम देखते हैं कि भावों का क्रम-संभव है। ईश्वरवादी—यह क्रम-भेद ईश्वर की इच्छावश है : “यह इस समय उत्पन्न हो! यह इस समय निरुद्ध हो ! यह पश्चात् उत्पन्न और निरुद्ध हो !" यदि ऐसा है तो भावों की उत्पत्ति एक कारण से नहीं होती क्योंकि छन्द-भेद है । पुनः यह छन्द-भेद युगपत् होगा क्योंकि छन्द-भेद का हेतु ईश्वर अभिन्न है और सर्वजगत् की उत्पत्ति युगपत् होगी। . द्वाभ्यामन्ये तु जायन्ते । व्याख्या : ईश्वर, पुरुष, प्रधान, काल, स्वभाव, परमाणु आदि । २ नेश्वरादेः क्रमादिभिः॥ बोधिचर्यावतार, ९.११९ से तुलना कीजियः षड्दर्शनसंग्रह) पृ ११: सुहृल्लेख (जे पी टी एस. १८८६), ५० इत्यादि । अंगुत्तर, १.१७३, कारपेंटर, थोइज्म, ५०