पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२५०

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द्वितीय कोशस्थान : प्रत्यय २३७ ए. ईश्वरवादी-ईश्वर के छन्द युगपत् नहीं है क्योंकि इन छन्दों के उत्पाद के लिये ईश्वर कारणान्तर की अपेक्षा करता है । यदि ऐसा है तो ईश्वर सर्व जगत् का एक कारण नहीं है । पुनः जिन कारणों की ईश्वर अपेक्षा करता है उनका भी क्रम-संभव है : अतः जिन कारणों की वह अपेक्षा करते हैं वह स्वयं कारणा- न्तरों की अपेक्षा करते हैं । अनवस्था-प्रसंग है । ईश्वरवादी-मानिये कि कारणसन्तति का आरम्भ नहीं हुआ है। इसका यह अर्थ होगा कि संसार अनादि है । आप एक कारणवाद का परित्याग करते हैं और हेतु-प्रत्ययके शाक्यपुत्रीय न्याय का पक्ष लेते हैं। [३१२] वी. ईश्वरवादी-ईश्वर के छन्द युगपत् होते हैं किन्तु सर्वजगत् की उत्पत्ति युगपत् नहीं होती क्योंकि उनका उत्पाद यथाछन्द अर्थात् क्रमपूर्वक होता है । यह युक्त नहीं है । ईश्वर के छन्दों में पश्चात् कोई विशेष नहीं होता (तेषां पश्चादविशे- पात्) । हम इसका निरूपण करते हैं। मानिये कि ईश्वर का यह छन्द है : “यह इस समय उत्पन्न हो ! यह पश्चात् उत्पन्न हो!" हम नहीं देखते कि क्यों द्वितीय छन्द जो पूर्व समर्थ नहीं है पश्चात् समर्थ होगा, क्यों जो पश्चात् समर्थ है वह पूर्व समर्थ न होगा। २. इस महायत्न से ईश्वर को क्या लाभ होता है जिससे वह जगत् की उत्पत्ति करता है ? ईश्वरवादी स्वप्रीति के लिये ईश्वर जगत् की उत्पत्ति करता है । अतः वह स्वप्रीति के विषय में ईश्वर नहीं है क्योंकि उपाय के विना वह उसकी निष्पत्ति में अशक्त है। स्वप्रीति के विषय में अनीश्वर होने से वह जगत् के विषय में कैसे ईश्वर होगा?--- पुनः यदि ईश्वर नरकादि में प्रजा की सृष्टि कर बहु इतियों से उन्हें उपद्रुत होते देखकर प्रसन्न होता है तो उसको नमस्कार है ! सत्य ही यह लौकिक श्लोक सुगीत है : “उसे रुद्र कहते हैं क्योंकि वह दहन करता है, क्योंकि वह तीक्ष्ण, उग्र, प्रतापवान है, क्योंकि वह मांस, शोणित- मज्जा खाने वाला है । ३. जगत् के एक कारण ईश्वर का पक्षनाही हेतु और प्रत्ययों का, अंकुरादि के प्रति बीज के प्रत्यक्ष पुरुषकार का, प्रतिषेध करता है । यदि अपनी प्रतिज्ञा को बदलकर वह इन हेतुओं के अस्तित्व को स्वीकार करता है और कहता है कि यह हेतु ईश्वर के सहकारी है तो कारणों के साथ ईश्वर को कारण कल्पित करनेवाले का यह केवल भक्तिवाद है क्योंकि जिन्हें सहकारी कहते हैं [३१३] उन कारणों से अन्य किसी कारण का व्यापार हम नहीं देखते । पुनः ईश्वर सहकारि- कारणों के विषय में अनीश्वर होगा क्योंकि यह कार्य की उत्पत्ति में स्त्रसामग्र से व्यापृत होते हैं। —कदाचित् प्रत्यक्ष हेतुओं के निपेव के परिहार के लिये और ईश्वर की अप्रत्यक्ष वर्तमान । शतरुद्रीय में व्यास का श्लोक (व्यास्या)-महाभारत, ७.२०३, १४०, १३.१६१, ७: यन्निदहति यत् तीक्ष्णो यदुनो यत् प्रतापवान् । मांसशोपितमज्जादो यत ततो एक उच्चते । -वफ, इन्द्रोडक्शन पृ:५६८ में यह उद्धरण मिलता है।