पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२५७

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२४४ अभिधर्मकोश रूपावचर अनिवृताव्याकृत तीन प्रकार में विभक्त है क्योंकि इस धातुमे शैल्पस्थानिक का अभाव है। आरूप्यावचर अनिवृताव्याकृत का विभाग नहीं हो सकता क्योंकि यह एकान्ततः विपाकज है। अतः अनिवृताव्याकृत के सात भेद हैं जो प्रथम सूची के दो अनिवृतान्याकृतों के अनुरूप हैं। कुशलों को अन्तर्भूत कर पूर्ण संख्या २० की होती है । [३२१] ऐपिथिकादि तीन अनिवृताव्याकृत के आलम्बन रूप-गन्ध-रस-स्प्रष्टव्य है।' शैल्पस्थानिक का शव्द भी आलम्बन है।' यह तीन अनिवृत्ताव्याकृत मनोविज्ञान ही हैं। पंच विज्ञानकाय ऐपिथिक और शैल्पस्थानिक के प्रायोगिक हैं। एक दूसरे मत के अनुसार एक मनोविज्ञान है जो ऐपिथिक' से भनिहत (उत्पा- दित) है, जिसका आलम्वन १२ आयतन है-चक्षुरायतन यावत् धर्मायतन । २. निम्न नियमों के अनुसार यह विंशति-चित्त एक दूसरे के अनन्तर उत्पन्न होते हैं । (१) कामधातु : कामावचर ८ प्रकार के चित्त अर्थात् २ कुशल, २ क्लिष्ट (अकुशल, निवृ-ताव्याकृत), ४ अनिवृताव्याकृत । १. प्रायोगिक कुशल के अनन्तर १० : (१-७) अभिज्ञाफल (निर्माणचित्त) को वर्जित कर स्वधातु के सात; (८) रूपावचर प्रायोगिक; (९-१०) शैक्ष और अशैक्ष । ८ के अनन्तर : (१-४) स्वधातु के चार, २. कुशल और दो क्लिष्ट; (५-६) रूपा- वचर प्रायोगिक और अनिवृताव्याकृत; (७-८) शैक्ष और अशैक्ष । [३२२] २. उपपत्तिलाभिक कुशल के अनन्तर ९ : (१-७) अभिज्ञाफल से अन्यत्र स्वधालु के सात; (८-९) रूपारूप्यावचर अनिवृताव्याकृत। 1 ३ (१) शय्यारूप-शरीररूपादि, (२) शिल्पस्थानरूपादि (धनुर्बाणादि), (३) निर्माण- रूपादि । [व्या २४३.५] २ क्योंकि शिल्पोपदेश-शब्द का आलम्बन कर पुद्गल शिल्प सीखता है-यहाँ विपाकज का उल्लेख नहीं है। अतः रूपादि पंच भौतिक इसके आलम्बन है। वास्तव में चंक्रमणादि चित्त, देखकर, अनुभव कर, यावत् स्पर्श कर, होता है।--शुआन-चा भाष्य का शोध करते हैं: "ऐपिथिक और अल्पस्थानिक के चार और पांच विज्ञान यथाक्रम प्रायोगिक हैं।" यह जानना चाहिये कि ऐपिथिक में श्रोत्रविज्ञान नहीं होता । [व्या २४३ , १४] विभाषा, १२६, १९--भदन्त अनन्तवर्मन् (२.४६ सी-डी को व्याख्या) विभाषा-व्याख्यान में इस मत का निर्देश करते हैं। इसके अनुसार अन्य अनिवृताव्याकृत हैं (७.५१ मै व्याख्यात) जो पूर्वोक्त चार अव्याकृतों में अन्तर्भूत नहीं हैं। [न्या २६३.२६] शुभआन-चाऊ : "ऐपिथिक और शल्पस्थानिक से।"