२४८ अभिधर्मकोश उत्पन्न हो सकता है। किन्तु रूपावचर उपपत्तिप्रतिलम्भिक कुशल पटु नहीं है और इसलिये वह आरूप्यावचर क्लिष्ट के अनन्तर उत्पन्न नहीं हो सकता । ४. चित्त एक दूसरे के अनन्तर उत्पन्न होते हैं। वह मनस्कारवश (मनसिकरण) उत्पन्न होते हैं। अतः मनस्कार का उपक्षेप करते हैं। (१) तीन मनस्कार हैं : १. स्वलक्षण-मनस्कार---यह स्वलक्षण का मनस्करण है। यथा यह संतीरण "रूप का लक्षण रूपण है....विज्ञान का लक्षण प्रतिविज्ञप्ति है" (१.१३,१६) । २. सामान्यलक्षण-मनस्कार--यह अनित्यता आदि सत्य के १६ आकार से संप्रयुक्त है : "संस्कृत धर्म अनित्य हैं।" (७.१० देखिये) । ३. अधिमुक्ति-मनस्कार--यह मनस्कार पूर्व दो मनस्कारों के तुल्य भूतार्थ संप्रयुक्त नहीं है । यह अधिमुक्ति से प्रवृत होता है (अधिमुक्त्या. . . . मनस्कारः, पृ.१५४ देखिये) । [३२६] अशुभा (६.९), अप्रमाण (८.२९), विमोक्ष (८..३२), अभिभ्वायतन 7 (८.३४), कृत्स्नायतन (८.३५) आदि भावनाओं में इसका प्राधान्य है । [प्रथम आचार्यों के अनुसार जिन्हें विभाषा, ११ उद्धृत करती है] इन तीन मनस्कारों के अनन्तर आर्यमार्ग का सम्मुखीभाव हो सकता है और विपर्यय से आर्यमार्ग के अनन्तर इन तीन मनस्कारों का उत्पाद हो सकता है । यह मत इस वचन पर आश्रित है : "वह अशुभासहगत (अर्थात् : अनन्तर) स्मृतिसंबोध्यंग की भावना करता है । [विभाषा के तृतीय आचार्यों के अनुसार सामान्यलक्षण-मनस्कार के अनन्तर ही मार्ग का सम्मुखीभाव हो सकता है। मार्ग के अनन्तर तीन मनस्कर का उत्पाद हो सकता है ।- प्रथम आचार्यों के उक्त वचन का यह अर्थ लेना चाहिये कि अशुभा भावना से चित्त का दमन कर योगी सामान्यलक्षण-मनस्कार के उत्पाद में समर्थ होता है और सामान्य-मनस्कार के अनन्तर वह आर्यभार्ग का सम्मुखीभाव करता है। सूत्र का अभिप्राय अशुभा भावना की इस पारम्पर्येण क्रिया से है । सूत्र वचन है : अशुभासहगतम् . . [विभाषा के चतुर्थ आचार्यों के अनुसार] सामान्यलक्षण-मनस्कार के अनन्तर ही योगी मार्ग का सम्मुखीभाव कर सकता है। पुनः आर्यमार्ग के अनन्तर सामान्य-मनस्कार का ही सम्मुखी- भाव होता है । आचार्य तृतीय आचार्यों का प्रतिषेध करते हैं।-~-यथार्थ में हम देखते हैं कि जो योगी अना- 'यथानिश्चय-धारणा के बल से योगी काय को यथाभूत नहीं देखता। वह उसको पूति अस्थि- मात्र का बना देखता है । यह अशुभा भावना है। यथा ऋद्धियों के (७.४८) अभिनिहरि फमें योगी कल्पना करता है कि पृथिवीधातु परीत है, अन्धातु महत् है (दीघ, २.१०८ से तुलना सीजिये) । स्युक्तागम, २७, १५ : अशुभासहगतं स्मृति संबोध्यङ्ग भावयति व्या २४७.६]- मृति आर्यमार्ग में संगृहीत है। सहगत का अर्थ है 'अनन्तर'। 1