पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२६२

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द्वितीय कोशस्थान : प्रत्यय २४९ गम्यादि (अनागम्य, प्रथमध्यान, ध्यानान्तर) भूमित्रय के संनिश्रय से आर्यमार्ग (४.२७ देखिये) में, सम्यक्त्वनियाम में, अवक्रान्त होता है वह मार्ग से व्युत्थान कर श्रुतमय या चिन्तामय [३२७] कामावचर सामान्यलक्षण-मनस्कार का उत्पाद कर सकता है क्योंकि यह भूमियाँ सन्नि- कृष्ट है किन्तु जब योगी द्वितीय-तृतीय-चतुर्थध्यान के संनिश्रय से सम्यक्त्वनियाम में अवक्रान्त होता है तो आर्यमार्ग से व्युत्थान कर जिस सामान्यलक्षण-मनस्कार का वह उत्पाद करता है वह किस भूमि का हो सकता है ? कामावचर सामान्य लक्षण-मनस्कार का संमुखीकरण शक्य नहीं है क्योंकि काम ऊर्ध्व ध्यानों से अतिविप्रकृष्ट है। द्वितीयध्यानादिभूमिक सामान्य लक्षण-मनस्कार का भी संमुखीकरण शक्य नहीं है क्योंकि निर्वेधभागीय से अन्यत्र (६.१७ : .

- आर्यमार्ग का

प्रयोग) इस मनस्कार का उसले पहले प्रतिलाभ नहीं किया था। और आर्य निर्वेधभागीय का पुनः संमुखीभाव नहीं कर सकता क्योंकि जिसने फल की प्राप्ति की है उसके लिये मार्ग-प्रयोग का पुनः संमुखीभाव युक्त नहीं है। किन्तु यह कहा जायगा कि अन्य सामान्य-मनस्कार हैं जिनको भावना निर्वेषभागीयों के साथ की गई है, जो तज्जातीय हैं क्योंकि वह सत्य को आलम्बन बनाते हैं किन्तु वह उनसे इसमें भिन्न है कि वह १६ आकारों को आलम्बन नहीं बनाते] : यथा “सब संस्कार अनित्य हैं", "सब धर्म अनात्म है","निर्वाण शान्त ह” (यह सामान्य-मनस्कार है क्योंकि यह सर्वनिर्वाण को आलम्बन बनाता है) योगी आर्यमार्ग से व्युत्थान कर इस दूसरे प्रकार के सामान्य-मनस्कार का संमुखीभाव करेगा। वैभापिक इसका वर्णन नहीं करते क्योंकि यह अयुक्त है। वास्तव में तज्जातीय-मनस्कारों की भावना निर्वेधभागीयों से प्रतिबद्ध है] (विभापा, ११, ९) । [यथार्थ वाद यह है कि आर्यमार्ग के अनन्तर तीन मनस्कारों का उत्पाद हो सकता है।] जब अनागम्य का निश्रय लेकर (विभापा, ११, १०) अर्हत्-फल का प्रतिलाभ होता है तो व्युत्थान- चित्त अनागम्यभूमिक या कामभूमिक होता है । जव आकिंचन्य का निश्रय ले इसी फल का प्रति- लाभ होता है तो व्युत्थान-चित्त आकिंचन्यभूमिक या भावात्रिक (नवसंजानासंज्ञायतन का) [३२८] होता है । जब इसी फल का प्रतिलाभ शेप भूमि का नियय लेकर होता है तो व्युत्थान-चित्त स्वभूमिक ही होता है। (२) चार प्रकार का मनस्कार है : उपपत्तिप्रातिलम्भिक, श्रुतमय, चिन्तामय, भावनामय। कामयातु में प्रथम, द्वितीय और तृतीय ही संभव है क्योंकि भावना कामावचरी नहीं है । रूपधातु में प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ ही संभव है क्योंकि इस धातु में ज्यों ही कोई चिन्ता करता है वह ध्यान-समापन्न हो जाता है। आल्प्यधातु में प्रथम और चतुर्थ ही होते है। अतः ८ मनस्कार हैं-३, ३ और २ (विभापा, ११, ९) । किसी भी धातु के उपपत्तिप्रातिलम्भिक मनस्कार के सनन्तर आयंमार्ग का उलाद मानी नहीं होता क्योंकि आर्यमार्ग प्रयोगप्रतिबद्ध है । अतः कामयातु के दो, रूपयानु के दो, मारूप्य-