पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२७

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अभिधर्मकोश हमने कहा है कि सास्रव धर्म मार्गवर्जित संस्कृत धर्म हैं। संस्कृत कौन है ? ७ ए-बी. संस्कृत रूपादि पंचस्कन्ध हैं।' रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध, विज्ञानस्कन्ध । 'संस्कृत' की व्युत्पत्ति इस प्रकार है: "जिसे प्रत्ययों ने अन्योन्य समागम से, एक दूसरे की अपेक्षा कर (समेत्य, संभूय) किया है (कृत)"। कोई भी एक ऐसा धर्म नहीं है जो एक प्रत्यय से जनित हो (२.६४)। 'संस्कृत' शब्द का अर्थ यद्यपि कृत' है तथापि यह अनागत धर्म के लिए, प्रत्युत्पन्न धर्म के लिए उसी प्रकार प्रयुक्त होता है जैसे अतीत धर्म के लिए। वास्तव में अध्च के बदलने से धर्म का स्वभाव नहीं बद- लता-दुग्धवत् । 'दुग्ध' का अर्थ है 'स्तन से गो निष्कासित हुआ है' 'जो दुहा गया है । किन्तु स्तनस्य क्षीर को भी लोक में 'दुग्ध' कहते हैं चाहे वह निष्कासित हो या न हो। 'इन्धन' का अर्थ है 'प्रदीप्त काष्ठ' किन्तु काष्ठ को भी 'इन्धन' कहते हैं । [१२] ७ सी-डॉ. संस्कृत ही अध्व, कथावस्तु, सनिःसार और सवस्तुक हैं।' १. संस्कृत ही अध्न अर्थात् अतीत, प्रत्युत्पन्न और अनागत काल हैं. क्योंकि उनका गत- गच्छत्-गमिष्यत्भाव है। यथा अध्व (मार्ग) के लिए लोक में कहते हैं कि यह अध्व ग्राम को गया, जाता है, जाएगा! अथवा संस्कृत अध्व' इसलिए कहलाते हैं क्योंकि अनित्यता (२.४५ सी) इनका भक्षण करती है (अद्यन्ते। २. कथा से अभिप्राय शब्द, वाक्य से है । कथा का वस्तु (विषय) नाम (२.३६) है।' क्या यह आवश्यक है कि कारिका में दिए अर्थ को हम अक्षरशः लें और कहें कि संस्कृत नाम हैं। नहीं । कथावस्तु से कथा के विषय का अर्थात् सार्थक वस्तु का ग्रहण होता है। अन्यथा यदि कथावस्तु से केवल नाम का ग्रहण हो तो प्रकरणपाद से विरोध हो । प्रकरणपाद में कहा. ५ २ इस सूत्र के १ ते पुनः संस्कृता धर्मा रूपादिस्कन्धपंचकम् [व्याख्या १९.३०, २०.७] । 'स्कन्ध' आल्या फा निरूपण १.२० में है। संस्कृत' पर विसुद्धिमग्गो २९३ देखियो । त ऐयाध्वा कथावस्तु सनिःसाराः सवस्तुकाः ॥ (व्याख्या २०.२४, २१.२०, २१.२८) अनुसार व्याख्या २१.३-५] श्रोणोमानि भिक्षयः कथावस्तून्यचतुर्थान्य- पंचमानि यात्याप्रित्यार्याः कयां कथयन्तः कथयन्ति । तमानि त्रीणि। अतीतं कथावस्तु भनागतं कथावस्तु प्रत्युत्पन्नं कथावस्तु । [प्रत्युत्पन्नं (व्याख्या २१.५) के अनन्तर कथावस्तु होना चाहिए या पर छूट गया है। अंगुतर, १.१९७ से तुलना कीजिए। संघभद्र, ६३३,३,१३. 3 २३.१०, फोलियो ४४ ए ४:"तीन अध्य, तीन कथावस्तु १८ धातुओं में, १२ आयतनों में, पांच सालों में संगहोत हैं। निरोधज्ञान को यजित कर शेष ९ ज्ञानों से बह जाने जाते हैं । ६ विज्ञानों से इनका प्रविचय होता है और सब अनुशयों से यह प्रभावित होते