पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२७०

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२६० अभियर्मकोश [४] वह कहते हैं कि ब्रह्मपुरोहितों के लोक में एक उच्च निवास उच्छित है जिसे ब्रह्मा- लोक' कहते हैं। यह चक्रवर्ती का निवास है। यह परिगण या आटविक कोर्ट के सदृश है; यह भूम्यन्तर नहीं है। आरूप्ययातुरेस्थान उपपत्तया चतुर्विधः । निकाय जोवितं चात्र निश्रिता चित्तसन्ततिः॥३॥ ३ ए.आरूप्यधातु में स्थान नहीं हैं।' {५] वास्तव में अरूपी धर्म अदेशस्य हैं। अतीत-अनागत रूपी धर्म, अविज्ञप्ति और अरूपी धर्म अदेशस्थ हैं। किन्तु ३ बी. उपपत्तिवश यह चतुर्विध है। आकाशानन्त्यायतन, विज्ञानानन्त्यायतन, आकिञ्चन्यायतन, नैवसंज्ञानासंज्ञायतन (या भवाग्र) आरूप्यधातु हैं । अतः यह चार प्रकार का है। 'उपपत्ति' से कर्मनिवृत्त जन्मान्तर की स्कन्धप्रवृत्ति समझनी चाहिये। एक ही कर्म से इन विविध आयतनों का लाभ नहीं होता। यह • आयतन एक दूसरे से ऊर्ध्व है। किन्तु इन में देशकृत उत्तर और अधर भाव नहीं है। जिस स्थान में समापत्ति [जो आरूप्योपपत्ति का उत्पाद करती हैं। से समन्वागत आश्रय का मरण होता है, उस स्थान में उक्त उपपत्ति की प्रवृत्ति होती है। उस स्थान में, उस उपपत्ति के अन्त में, अन्तराभव का उत्पाद होता है जो [कामधातु या रूपघातु में] जन्मान्तर का ग्रहण करता है। (३.४ वी-डी, पु० १५. टिप्पणी १ देखिये)। रूपी सत्त्वों की चित्त-सन्तति का, चित्त और चैत (२.२३) का, निश्रय रूप है और इस प्रकार उनकी प्रवृत्ति होती है। आरूप्योपपन्न सत्त्वों की चित्त-सन्तति का निश्रय क्या होगा? ३ सी-डी . यहाँ चित्त-सन्तति निकाय और जीवितेन्द्रिय पर निश्रित है।' आभिधार्मिकों के अनुसार दो चित्त-विप्रयुक्त धर्म आरूप्योपपन्न सत्त्वों की चित्त-सन्तति के २ यह 'आवास' ध्यानान्तरिका है, कोश, २.१० १९९ मैं समझता हूं कि मैने शुमान् चाड और परमार्थ को ठीक समझा है; किन्तु अनेक स्थलों में कोश 'महाब्रह्माणः' का उल्लेख करता है। यह पालि ग्रन्थों के महाब्रह्मदेव हैं। यह एक राजा के सहायक या पार्षद हैं (कोश, ६.३८ बो, प. २१४ देखिये)। व्याख्या इनके नाम का व्याख्यान करती है--"यह 'महाब्रह्माणः' है षयोंकि आगु, वर्णादि में ब्रह्मा उनसे 'परिगण इव अर्थात् परिषण्ड इव । दूसरे व्याख्यान करते हैं : आटविक कोट्टा व्या २५५.३०] बोल, फैटिना, ९४ : "कोशशास्त्र में कहा है कि ब्रह्मा का कोई पृथक् निवास नहीं है। केवल ब्रह्मपुरोहित लोक को महिका में एक ऊँचा अट्टालक है जो (ब्रह्मा को निवास ) हैं।" इस प्रश्न का विचार कि इस धातु मैं रूप है या नहीं है. सोप. १३६-१४३ में किया गया है। निकायं जीवितं चात्र निधिला चित्तसन्ततिः।। व्या २५६.१२] जैसा ३.४१ में हम देखेंगे प्रयम दो घातुओं के चित्त और चत्त आश्रित हैं जिनका आश्रय