पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२७१

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सृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश निश्रय हैं। इन्हें निकायसभागता और जीवितेन्द्रिय (२.४५) कहते हैं। [६] रूपी सत्त्वों की चित्त-सन्तति इन दो धर्मो पर निश्रित नहीं है, क्योंकि यह दुर्वल है। अरूपी सत्त्वों की चित्त-सन्तति बलवती होती है, क्योंकि यह समापत्ति-विशेष से जहाँ से रूप-संज्ञा विगत है संजात है। किन्तु यह कहा जायगा कि जब रूपीसत्त्वों का निकाय' और जीवितेन्द्रिय रूपनिश्रित है तव अरूपी सत्त्वों के 'निकाय और जीवितेन्द्रिय का क्या आश्रय होगा? यह दो अन्योन्यनिश्रित हैं। रूपी सत्त्वों में निकाय और जीवितेन्द्रिय अन्योन्यनिश्रय के लिये बलवान् नहीं हैं। अरूपी सत्त्वों में इनका यह बल होता है क्योंकि यह समापत्ति-विशेष से प्रवृत्त होते हैं। सौत्रान्तिकों के अनुसार अरूपी सत्त्वों को चित्त-सन्तति, उनके चित्त-चत्त का कोई उनसे अन्य आश्रय नहीं होता। यह सन्तति बलवती है और निश्रय की अपेक्षा नहीं करती । अथवा यों कहिये कि चैत्तों का निश्रय लेकर चित्त की प्रवृत्ति होती है और चित्त का निश्रय ले कर चत्तों की प्रवृत्ति होती है, यथा आपके अनुसार निकायसभाग और जीवितेन्द्रिय का अन्योन्यनिश्रयत्व जन्मान्तर की चित्त-सन्तति हेतु-विशेष ( कर्म-क्लेश ) से 'आक्षिप्त होती है। यदि यह हेतु रूप में (रूपराग) वीततृष्ण नहीं है तो रूप के साथ चित्त-सम्भव होगा और उसकी चित्त-सन्तति की प्रवृत्ति रूपनिश्रित होगी। यदि यह हेतु रूपराग से विमुख है—यथा वह समापत्ति जो आर- प्योपपत्ति का आक्षेप-हेतु है-तो चित्त का पुनः सम्भव होगा और चित्त का सद्भाव रूप-संयोग के विना होगा। कामधातु आदि आख्याओं का क्या अर्थ है ? धातु वह है जो स्वलक्षण (अर्थात् काम आदि) धारण करता है (दधाति), अथवा धातु का अर्थ गोत्र है, जैसा पूर्व १.२० ए.पृ. ३७ में व्याख्यात है। [७] १. मध्यम पद का लोप करने से कामधातु का अर्थ "काम-संप्रयुक्त धातु" है, यथा 'वन-संप्रयुक्त वालक' के लिये 'वज्र-वालक' कहते हैं (वत्रेण संप्रयुक्तोऽङ्ग लीयकः), यथा 'मरिच-सम्प्रयुक्त पानक' के लिये 'मरिच-पानक' कहते हैं। व्या० २५७.२] २ सेन्द्रियकाय है। जब इंद्रियों का विनाश होता है तव चित्त की परिहाणि होती है, चित्त का मरण होता है। निकाय = निकायसभाग पर २.४१, ३.७ सी देखिये। निकायसभाग = उपपत्त्यायतन शुआन्-चाड शोचते हैं-रूपी सत्त्वों की चित्त-सन्तति इन दो पर निश्रित नहीं है क्योंकि यह दुर्बल हैं। अरूपी सत्त्वों में यह बलवान् होते हैं क्योंकि यह एक ऐसी समापत्ति से संजात है जहाँ से रूम-संज्ञा विगत है। किन्तु आप यह क्यों नहीं मानते कि अरूपी सत्त्वों की चित्त- सतर्गत इस समापत्ति पर साक्षात् निश्रित है ? यह अधिक निधय क्यों ? पुनः अरूपी सत्त्वों को निकायसभागता और जीवितेन्द्रिय रूपनिश्रित हैं.. २.१४, ८.३ सो,पू. १३७ देखिये। विभाषा, ७५.६६ यथा पृथिवीधातु आदि। १