पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२७२

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२६२ अभिधर्मकोश इसी प्रकार रूपधातु 'रूपसंप्रयुक्त धातु' है। 'अरूप' (रूपविगत) विशेषण है। इससे भाववाच्य 'आरूप्य' (रूप का अभाव) होता है। अथवा रूप "रूपणीय, वाचनीय है" (१.२४, पृ. ४५) । अरूप रूप का अभाव है। आरूप्य तद्भाव है अरूपभाव । आरूप्य-धातु आरूप्य से संप्रयुक्त है। २. अथवा यह षष्ठी समास हैं । कामधातु कामों का निधान या धातु है; रूपधातु रूपों का धातु है, जो रूपों को धारण करता है। आरूप्यधातु आरूप्य का धातु है, जो आरूप्य को धारण करता है। काम का क्या अर्थ है ? (विभाषा, १७३ . पृ . ८७०) कवडीकार आहार (३.३९) और मैथुन से उपसंहित राग। [काम राग का आलम्बन नहीं है। काम के आलम्बन को 'कामगुण' कहते हैं किन्तु काम वह है जो कामना करता है। (काम्यत अनेनेति कामः)] [व्या २५७.१७] निम्न गाथाओं में यह अर्थ प्रदर्शित किया गया है। शारिपुत्र एक आजीवक से कहते हैं : "इस लोक के चित्र रूपादि काम नहीं है। काम पुरुष का संकल्प-राग है । लोकधातु के रूप महत्व नहीं रखते । भिक्षु उनके प्रति सर्व कामछन्द का दमन करता है"।-आजीवक उत्तर देता है : "यदि इस लोक के चित्र रूपादि काम नहीं हैं, यदि काम संकल्प-राग है तो एक भिक्षु भी 'कामोपभोगी होता है जब वह काम-वितर्क की कल्पना करता है" । शारिपुत्र उत्तर देते हैं : "यदि इस लोक के चित्र रूपादि काम हैं, यदि काम [८] पुरुष का संकल्प-राग नहीं है, तो शास्ता भी मनोरम रूप देख कर कामोपभोगी होंगे"।' यह आरूण्यधातु का व्याख्यान है किन्तु जब केवल आरूप्य शब्द का प्रयोग होता है और अरूपी समापत्तियों (८.२ सी) से अभिप्राय होता है तो आरूप्य का अर्थ 'अरूप' अथवा 'आरूप्य (धातु) के अनुकूल' होता है (आरूप्ये वा साधवः) । [व्या २५७.६] कामानां वा धातुरिति.....कामान् यो दधाति... आरूप्यं यो दधाति । व्या २५७.९] संयुक्त, २८.३--प्रथम गाथा अंगुत्तर, ३.४११ में उक्त है जहाँ इसे देवता की उक्ति बताया है। संस्कृत और पालि में इसका आरम्भ इस प्रकार होता है :न ते कामा यानि [चित्राणि लोके । संकल्परागः पुरुषस्य कामः। जहां तक मुझे ज्ञात है अन्य दो गाथा पालि में नहीं हैं। व्याख्या में अन्तिम दो पंक्तियाँ दी हैं :शास्तापि ते भविष्यति कामभोगी दृष्ट्व रूपाणि मनोरमाणि। [व्या २५७. ३३] आजीवक का तर्क युक्त नहीं है। वह समझता है कि कामोपभोगिन् होने से भिक्षु अभिक्षु हो जाता है और यदि काम राग है तो भिक्षु अर्थों का उपभोग किये विना ही कामोपभोग होगा और भिक्षुत्व का त्याग करेगा। किन्तु राग से केवल भिक्षु का शील अपरिशुद्ध होता है। वह अभिक्षु नहीं होता। अभिक्षु होने के लिये काय या वाक् से तथागत के शिक्षापदों का उल्लंघन करना आवश्यक है। कथावत्यु, ८.३-४ में थेरवादिन् पुब्बसैलिय के विरुद्ध यह सिद्ध करता है कि कामधातु 'काम' शब्द का अर्थ रूपायतनादि रागविषय' नहीं है किन्तु 'राग' है । वह वसुबन्धु की तरह अंगुत्तर, ३.४११ = संयुत्त, १.२२ की गाथा को उद्धृत करता है। अत्यसालिनी, १६४-१६५ में उद्धृत विभंग, २५६ से तुलना कीजिये; 'वत्युकाम और 'किलेसफामो में भेद--महानिस आन सुत्तनिपात, ७६६, कम्पेडियम पू,.८१, टिप्पणी २१ विभाषा, ७३ धर्मस्कन्ध, ५, १५. . . १ के