पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२७३

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २६३ क्या जो धर्म एक धातु में समुदाचार करते हैं उन सब को उस धातु से प्रतिसंयुक्त (आप्त, पतित) [-उस धातु के अवचर] मानना चाहिये ? नहीं। केवल उन धर्मों को धातु-प्रतिसंयुक्त मानना चाहिये जिनमें उस धातु का राग, कामराग, रूपराग, आरूप्यराग अनुशयन करता है, वहुलता को प्राप्त होता है। प्रत्येक धातु का राग क्या है? [९] यह वह राग है जो इस धातु के धर्मों में विपुलता प्राप्त करता है, जो इन धर्मों में अनुशयन करता है। यह अश्ववन्धीय है : “कोई प्रश्न करता है कि यह किसका अश्ववन्ध है ? जिसका यह अश्व है। यह किसका अश्व है ? जिसका यह अश्ववन्ध है।" उभय उत्तर का कोई अर्थ नहीं जाना जाता। क्षमा कीजिये । हमने कामधातु के स्थानों का निर्देश किया है। 'कामराग' उसे कहते हैं जो उस सत्त्व का राग है जो इन स्थानों में अवीतराग है, जिसने इन स्था के धो का परित्याग नहीं किया है।' अथवा 'कामराग' उस सत्त्व का राग है जो समाहित नहीं है। "रूपराग, आरूप्यराग" व्यानसमापत्ति का राग, आरूप्यसमापत्ति का राग। कामावचर निर्माण-चित्तं ध्यान-फल है। अतः इस चित्त का उत्पाद केवल कामवीतराग सत्त्वों में होता है । इस चित्त का कामावचरत्व कैसे है ? वास्तव में इस निर्माण-चित्त का समुदा- चार कामवीतराग सत्त्व में नहीं होता और जब निर्माण-चित्त का समुदाचार कामवीतराग सत्त्व में होता है तब कामराग इसका आलम्बन नहीं होता। अतः कामराग के बिना ही (कामरागेण विना) [व्या २५९. १] इस चित्त का कामावचरत्व है। यह सदोष है। आपके दिये हुए धातु- लक्षण का यह विरोध करता है। प्रति राग २ कामवातु में रूपावचर और आरूप्यावघर धर्म का, यथा विविध समापत्तियों का,(८.१९ सौ) समुदाचार होता है। इन समापत्तियों के प्रति एक पुद्गल को राग का अनुभव हो सकता है, किन्तु क्योंकि इस राग का आलम्बन एक ऊर्ध्व भूनिक धर्म है इसलिये इसकी यहाँ प्रतिष्ठा नहीं होती यथा तप्त उपल पर पाद को प्रतिष्ठा नहीं होती(५.२, ३९)। इसी प्रकार कान- धातु के तत्वों में मनानव धर्मों का अर्थात् आर्य मार्ग-चित्त का समुदाचार होता है। यह धर्म 'राग' के आलम्बन नहीं हैं चाहे किसी धातु का यह राग क्यों न हो (५.१६, ८.२० सी)। अतः यह अधातुपतित, अधात्याप्त है। इसलिये यह नियम है कि 'तृष्णा' भूमि (कामघातु - एक भूमि, रूपधातु = चार शूमि) को निश्चित करती है। ८.२० सी। प्रत्येक धर्म जिस में कामोपपन्न सत्त्व को 'तृष्णा' विपुलता को प्राप्त होती है कामभूमिका है। 'येषु कामरूपालप्यरागा अनुशेरते । येषु कामरागोऽनशेत मालम्बनतःसम्प्रयोगतो वायथासंगवं ते कामप्रत्तिसंयुक्ताः......व्या २५८.१०] व्याख्या को सहायता से हम इस भाष्य का जयं करते हैं : निर्माणचित्ते फर्य फामरागः। श्रुत्वा परिहाय च तदास्वादनात् । निर्माणक्शेन वा । गन्धरतनिर्माणाहा [कामावचरत्वम् रूपावचरेण तयोरनिर्माणात् । ७.४९-५१ देखिये