पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२७६

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आभधमकाश ४ बी-डी . अक्लिष्टाव्याकृत हैं; यह सत्वाख्य हैं। इनमें अन्तराभव संगृहीत नहीं है।' विपाकफल होने के कारण (२.५७) गतियाँ अक्लिष्टाव्याकृत हैं । अन्यथा पाँच गतियों का संभेद होगा : [वास्तव में एक पुद्गल नरक-संवर्तनीय, देवोपपत्ति-संवर्तनीय कर्म कर सकता है। यदि कर्म गतियों में पर्यापन्न होते तो मनुष्यगति नरक और देवगति भी साथ साथ होती। कामोपपन्न सत्त्व कामावचर क्लेश से समन्वागत होता है और ऊर्श्वभूमिक क्लेशों से समन्वागत हो सकता है । यह सत्त्वाख्य (१.१० वी) हैं। भाजनलोक गतियों के अन्तर्गत नहीं है । अन्तराभव गति नहीं है (नीचे पृ. १४, ३.१०) । गतियों के स्वभाव का प्रतिपादन कई वचनों से होता है। १. प्रज्ञाप्ति में उक्त है : “चार योनियों में (३ . ८ सी) संगृहीत पाँच गतियाँ हैं । क्या पाँच गतियों में संगृहीत चार योनियाँ हैं ? अन्तराभव जिसकी उपपादुक योनि है पाँच गतियों के अन्तर्गत नहीं है।' [१३] २.धर्मस्कन्ध (९, ८) कहता है : "चक्षुर्धातु क्या है ? जो रूपप्रसाद उपादाय रूप है और जो नरक में, तिर्यक् योनि में, प्रेत विषय में, देवों में, मनुष्यों में, ध्यानोपपन्न सत्त्वों में, अन्तराभव में चक्षु है, चक्षुरिन्द्रिय है, चक्षुरायतन है, चक्षुर्धातु है।' ३. सूत्र स्वयं कहता है कि अन्तराभव गतियों में संगृहीत नहीं है---"सात भव हैं" : नरकभव, तिर्यग्भव, प्रेतभव, देवभव, मनुष्यभव तथा कर्मभव और अन्तराभव।" यह सूत्र पाँव गतियों का (नरकादि भव का) निर्देश सहेतुक और सगमन करता है। हेतु, कर्म या कर्मभव (३. २४ ए) है और गमन अन्तराभव है जिससे एक सत्त्व गतिविशेष को प्राप्त होता है। यह सूत्र साथ साथ यह भी प्रदर्शित करता है कि गतियाँ अक्लिष्टाव्याकृत हैं क्योंकि यह गतियों से (नरकादि भव से) गतियों के हेतु कर्मभव को अर्थात् व्याकृत कर्म (कुशल, अकुशल) को वहिष्कृत करता है । ४. यह अन्तिम वस्तु इस सूत्र से भी व्यवस्थित होता है जिसका पाठ काश्मीरक' ३ ताः। अक्लिष्टाव्याकृता एव सत्वाख्या नान्तराभवः॥ नीचे पृ. १५, टिप्पणी २ देखिये। ३ कारणप्रज्ञाप्ति में गति का लक्षणबुद्धिस्ट कास्मालजी, ३४५ में इसका अनुवाद दिया है। हम देखेंगे कि इसके अनुसार नारकनिकायसभागता, नारकायतनसमन्वागम, अनिघृताव्याकृत- नारकरूपादि नारकेषु प्रतिसन्धिः' के समान नरकगति हैं। हम उद्धार कर सकते हैं : चतसृभ्यो योनिभ्यः पञ्चगतयः संगृहीताः। किं पञ्चभ्यो गतिभ्य- श्चतस्रो योनयः संगृहीताः। अन्तराभवः। • तिब्बती भाषान्तर और परमार्थ के अनुसार हम इसका उद्धार कर सकते हैं : चक्षुर्धातुः कतमः । यश्चत्वारि महाभूतान्युपादाय रूपप्रसादो नरो वा तिर्यग्योनी वा प्रेतविषये वा देवेषु वा मनुष्येषु वा भावनाजेषु वान्तराभवे वा चक्षुश्चक्षुरिन्द्रियं चक्षुरायतनं चक्षुर्धातुः । इस सूत्र का विचार विभाषा , ६०, ५ में ह । यह सप्तभवसूत्र है। जो निकाय अन्तराभव का प्रतिषेध करते हैं वह उसकी प्रामाणिकता का विरोध करते हैं। संघभद्र, २३.३,६ ए देखिये। इसका अनुवाद निर्वाण, १९२५, पृ. २३, टिप्पणी वसुबन्धु कहते हैं कि "केवल काश्मीरक इस सूत्र का पाठ करते हैं। यह सूत्र मुक्तक है, नीचे पु० १८९, सिद्धि २७६। यह आगमों में संग्रहीत नहीं है। ज्या २५९.३२] विभाषा, १७२, ३ के अनुसार। 3 ६