पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२७९

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२६९ तृतीय कोशस्थान : लोकनिद्रेश सूत्र (मध्यम २४-११) के अनुसार : १ "रूपी सत्व हैं जिनके काय और जिनकी संज्ञा भिन्न है अर्थात् मनुष्य और कतिपय देव। यह प्रथम विज्ञानस्थिति है।" यह कतिपय देव कौन हैं ? कामावचर ६ देव (१.१) और प्रयमाभिनिर्वृत्तों को वजित कर प्रथमध्यानिक (ब्रह्मालोक के) देव। [१७] यह 'नानात्वकाय' हैं क्योंकि उनके वर्ण, लिंग (वस्त्र, आभरण आदि), संस्थान (यादि) अनेक हैं। यह 'नानात्वसंज्ञी' हैं क्योंकि इनकी संज्ञा-सुखसंज्ञा, दुःखसंज्ञा, अदुःखा- सुखसंज्ञा-अनेक है। स्यितयः सप्त। विभाषा, १३७, ६ जैसा हम देखते हैं कारिका में नानात्वकाय, नानाकाय, नानासंज्ञा, नानात्वसंजिन अनियत रूप से प्रयुक्त हुए हैं। सूत्र (महान्युत्पत्ति, ११९, १-७) : १. रूपिणः सन्ति सत्वा नानात्वकाया नानात्वसंशि- नस्तद्यया मनुष्या एकत्याश्च देवाः, २.....नानात्वकाया एफत्वसंज्ञिनस्तद्यथा देवा बझनायिकाः प्रयमाभिनिव॑ताः, ३....एकत्वकाया एकत्वसंज्ञिनस्तद्यथा देवा माभास्वराः, ४....एकत्वकाया एकत्वसंजिनस्तद्यया देवा शुभकृत्स्नाः, ५- आकाशानन्त्यायतनम् [समी- चीन पाठ °आयतनोपगा:], ६. विज्ञानानन्त्यायतनम्, ७.आकिंचन्यायतनम् । दोघ, २.६८ (३.२५३, २८२, अंगुत्तर, ४.३९, ५.५३) : ७ विज्ञानस्थिति और दो आयतन हैं [विज्ञान स्थिति और आयतन को मिला कर ९ सत्त्वावास होते हैं, कोश, ३.६ सो]: १. सन्ति आनन्द सत्ता नानत्तकाया नानत्तसमिनो सेय्यथापि मनुस्सा एफच्चे च देवा एकच्चे च विनिपातिका....२. सत्ता नानत्तकाया एकत्तसचिनो.....और पूर्ववत् यावत् सुभकिण्गा; ५. सन्ति आनन्द सत्ता सव्वसो रूपसञ्चानं समतिक्कमा पटिघसानं अत्याना नानतप्तानं अमनसिकारा अनन्तो आकासोति आकासानञ्चायतनूपगा, ६......विाणानञ्चायतनूपगा, ७..... आकिञ्चायतनूपगा। कामावचराः घर प्रायमध्यानिकाश्च प्रथमाभिनिर्वृत्तवाः [व्या २६१.३] प्रयन ध्यान के देव बहिर्देशक नय से यह हैं : १. ब्रह्मकायिक २. ब्रह्मपुरोहित, ३. महाग्रहा (महाब्रह्माणश्च)। काश्मीर नय से महाब्रह्माओं का ब्रह्मपुरोहितों से अन्य कोई 'स्थान नहीं है (जैसा हमने पृष्ठ २-४ में देखा है)। पालिसूत्र का विनिपातिक' नहीं है। ३ विभाषा(१३७ ) में 'प्रथमध्यानिक देव' यह शब्द नहीं है क्योंकि इन देवों का संज्ञानानात्व आवश्यक नहीं है (कोओगा को टिप्पणी)। शुआन्-चार और परमार्थ प्रयमाभिनिवृत्त' का यह अनुवाद देते हैं : कल्प के मावि में जिनका जन्म होता है। हम परमार्थ का अनुसरण करते हैं। वसुबन्धु (जिनका अनुसरण लोत्सधा और शुमान् चाडर करते हैं) 'नानात्वसंज्ञा' का यह व्याख्यान करते हैं: "संज्ञानानात्व क्योंकि संज्ञाएं भिन्न है। इस नानात्व से समन्वागत होने के कारण उनकी संज्ञाएं अनेक हैं।" नानात्व संज्ञा पर रोज डेविड्स-स्टोड और फ्रेंके, दोघ, पृ० ३४, टिप्पणी ८ के हवाले देखिये। ३