पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२८

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प्रथम कोशस्थान : धातुनिर्देश है कि कथावस्तु १८ धातुओं में संगृहीत है।" (विभापा, १५, ८) ३. निःसार का अर्थ है अवश्य निःसरण (सार = निःसरण), सर्व संस्कृत का निर्वाण (निरुपवि-शेष निर्वाण)। क्योंकि संस्कृत से निःसरण आवश्यक है इसलिए संस्कृत को 'सनिःसार' कहते हैं।" [१३] ४ संस्कृत सहेतुक हैं। इसलिए उन्हें सवस्तुक कहते हैं अर्थात् सहेतुक ।। वैभाषिकों का मत है कि 'सवस्तुक' शब्द में 'वस्तु' का अर्थ 'हेतु' है । संस्कृत' के यह विविध पर्याय रूप हैं। ये सासवा उपादानस्कन्धास्ते सरणा अपि। दुःख समुदयो लोको दृष्टिस्थानं भवञ्च ते ।।८।। ८ ए-बी-जब वे सास्रव होते हैं तब उपादानस्कन्ध होते हैं। सास्रव संस्कृत ५ उपादान स्कन्व हैं। सव उपादानस्कन्ध स्कन्य हैं। किन्तु अनास्रव संस्कृत स्कन्धों में संगृहीत हैं, उपादानस्कन्वों में संगृहीत नहीं हैं (विभाषा, ७५, ३) । 'उपादान' क्लेश हैं (क्लेश, ५.३८)। उपादानस्कन्ध संज्ञा इसलिए है (१) क्योंकि यह क्लेशों से संभूत हैं यथा लोक में 'तृणाग्नि' 'तुपाग्नि' कहते है; (२) अथवा यह क्लेशविधेय हैं यथा लोक में राजा से विधेय पुरुप को 'राजपुरुप' कहते हैं; (३) अथवा इनसे उपादान, क्लेश संभूत होते है, यथा लोक ५ १ ४ असंस्कृत कियावस्तु' क्यों नहीं हैं ? क्योंकि यह कया का हेतु-प्रत्यय (२.५५) नहीं है। क्योंकि जैसे हम कह सकते हैं कि 'दीपंकर एवं एवं थे...... मैत्रेय एवं एवं होंगे. कप्फिण (?) राजा ऐसे हैं" उस प्रकार असंस्कृत आख्यानकरण-योग्य नहीं है [व्याख्या २१.२०] । प्रकरण, ३४ ए के अनुसार हम उद्धार कर सकते हैं: सनिःसारा धर्माः कतमे ? सर्वे संस्कृता धर्मा:-केवल सालव धर्मो से ही नहीं किन्तु आर्यमार्ग से भी 'निःसरण आवश्यक है । कोलोपम सूत्र को व्याख्या [२१.२५] उद्धृत करती है, मज्झिम, १.१३५, वज्रच्छेदिका १६: कोलोपमं धर्मपर्यायं आजानद्भिर्मा अपि प्रहातव्याः प्रागेवाधर्मा इति (बोधिचर्यावतार, ९.३३ से तुलना कीजिए; कठ, २.१४) । कोलोपन पर ८.१८६ और परिशिष्ट देखिए। प्रकरण, ३३ वी ३ के अनुसारः सवस्तुकाः सप्रत्यया धर्माः कतमे? -संस्कृता धर्माः-२.५५ के अन्त में देखिए। २. निरुक्ति के अनुसार 'वस्तु' का अर्थ हेतु है: वसन्त्यस्मिन् प्राक् कार्याणि पश्चात् तत उत्पत्तः। व्याख्या २१.२९ में 'उत्पत्तेः' के स्थान में 'उत्पत्तिः पाठ है।] व्याख्या [२१.३०] यहां २.५५ के भाष्य का एक अंश उद्धृत करती है। प्रवचन में 'वस्तु' शब्द का प्रयोग पांच अर्थों में पाया जाता है (विभाषा, १९६,८)-वसुबन्धु के मत में सवस्तुक का अर्थ 'सस्वभाव है। संस्कृत सस्वभाव है, असंस्कृत अवस्तुक प्रज्ञप्तिसत् हैं। 3 ये सालवा उपादानस्कन्धास्ते [व्याख्या २२. १०] विभाषा, ७५, ३ में 'उपादानस्कन्ध' पद के १४ अर्थ दिए हैं। वसुबन्धु इनमें से पहले तीन देते हैं। खन्य और उपादानक्लन्ध पर विसुद्धिमग्ग, १४, वारेन, पृ १५५ देखिए ।