पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२८०

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२७० अभिधर्मकोश २. “रूपी सत्त्व जिनके काय भिन्न हैं और संज्ञा एक है, अर्थात् प्रथमाभिनिवृत्त ब्रह्म- कायिक देव ।' यह द्वितीय विज्ञान स्थिति है। इन सब प्रथमाभिनिवृत्त देवों की संज्ञा एक है क्योंकि सब को एक ही हेतु को संज्ञा होती है । ब्रह्मा विचार करता है : “मैने इनका निर्माण किया है" और ब्रह्मा के पार्षद विचार करते है कि "ब्रह्मा ने हमारा निर्माण किया है। काय का नानात्व है क्योंकि ब्रह्मा और उसके पार्षद आरोह, परिणाह, आकृति-विग्रह, बाग्भाषा, वस्त्र और आभरण में भिन्न हैं ।' [१८] सूत्र में यह पठित है कि देव यह अनुस्मरण करते हैं कि “हमने इस दीर्घायु सत्त्व को इतने दीर्घ काल तक अवस्थान करते देखा है... जव उसने प्रणिधान किया कि अन्य सत्त्व भी मेरी सभागता में उपपन्न हों, हम यहाँ उपपन्न हुए" (३.९० सी-डी देखिये)। हम प्रश्न करते हैं कि यह देव कहाँ थे जब इन्होंने ब्रह्मा को देखा। कुछ आचार्यों के अनुसार [जो उस सूत्र का प्रमाण देते हैं जिसमें उपदिष्ट है कि ब्रह्मकायिक आभास्वर लोक से च्युत हो कर ब्रह्मालोक में पुनरुपपन्न होते हैं] उन्होंने ब्रह्मा को उस समय देखा था जब वह आभास्वर लोक में थे। किन्तु हम कहेंगे कि द्वितीय-ध्यानभूमिक आभास्वर लोक से च्युत हो कर उन्होंने द्वितीय ध्यान का त्याग किया है और द्वितीय ध्यानभूमिक (कोश ७ पृ. २ ३ ब्रह्मकायिक से सब प्रथमध्यानिक देवों का अर्थ लेना चाहिये। प्रथम का निर्देश करने से दूसरों का भी निर्देश होता है। वोध, १.१८, ३.२९ से तुलना कीजिये। ब्रह्मा विचार करते हैं : मया इमे सत्ता निम्मिता ....... दूसरे देव विचार करते हैं : इमिना मयं भोता ब्रह्मणा निम्मिता। तिब्बती भाषान्तर का यह अनुवाद हो सकता है : "संज्ञा का आकार भिन्न न होने से उनकी एक ही संज्ञा है।"--परमार्थ बहुत स्पष्ट हैं : क्योंकि उनकी समान रूप से यह संज्ञा होती है कि ब्रह्मा एकमात्र कारण है।"--संघभद्र इस दोष का प्रतिषेध करते है : “संज्ञा का नानात्व है क्योंकि ब्रह्मकायिक विचार करते हैं कि वह निर्मित हैं और ब्रह्मा यह विचार करता है कि वह निर्माण करता है।" वास्तव में वह कहते हैं कि दोनों में एक हेतु को संज्ञा होती है, दोनों में निर्माण की संज्ञा होती है। आरोह (उत्तरता), परिणाह - (स्थौल्यप्रमाण), आकृति-विग्नह अर्थात् आकृतिलक्षण विग्रह । अतः यह शरीर का समानवाची है। पुनः 'वेदनानिग्रह' - वेदनासमूह आदि भी हैं] ; वाग्भाषा (वागुच्चारण) । शुआन्-चाङ और परमार्थ का अनुवाद = वाग् भासः। १ इमं बयं सत्यं अवाक्षम दीर्घायुषं वीर्वमध्वानं तिष्ठन्तं....अहो बतान्येऽपि सत्त्वा मम सभा: जतायामुपपद्येरनिति चेतसः प्रणिधिः। वयं चोपपन्नाः व्या २६१.२३] । दीघ का पाल भिन्न है। ब्रह्मा का प्रणिधि-वाक्य यह है : .....अहो बत अनपि सत्ता इत्यतं आगच्छे- य्युन्ति और देवों का विचार यह है : इमं हि मयं अद्दलास इध पठममुपपन्न। मयं पनम्हा पच्छा उपपन्ना "क्योंकि हमने उनको अपने से पूर्व यहाँ उपपन्न क्षेला और हम उनके पश्चात् उपपन्न हुए पू-पयाडर कहते है कि इस प्रश्न के तीन उत्तर है। संघभद्र में ६ उत्तर का उल्लेख है। विभाषा, ९८ पाँच उत्तरों का उल्लेख करती है जिनमें से पहले तीन वसुबन्धु ने विषे हैं।