पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२८२

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अभिधर्मकोश [२०] द्वितीय घेदना से परिखिन्न हो यह मौल द्वितीय व्यान और सौमनस्य वेदना का पुनः ग्रहण करते हैं। यथा कामसुख से परिखिन्न हो अधिपति राज्य-(या धर्म) सुख का ग्रहण करतं हैं और धर्म से परिखिन्न हो कामसुख का पुनः ग्रहण करते हैं। यह आक्षेप होगा कि यथा द्वितीय ध्यान के देव होते हैं वैसे ही तृतीय ध्यान के देवों को (शुभकृत्स्नादि : चतुर्थ विज्ञानस्थिति) भी होना चाहिये, किन्तु तृतीय ध्यान के देव सामन्तक में प्रवेश नहीं करते और सदा सुखेन्द्रिय से समन्वागत होते हैं । किन्तु यह आक्षेप वृथा है । शुभकृत्स्न स्वसुख से परिखिम्न नहीं होते क्योंकि यह शान्त है किन्तु आभास्वरों का सुख सौमनस्य होने से चित्त का उत्प्लावक है और शान्त नहीं है । सौत्रान्तिकों का भिन्न मत है । वह सूत्र (सप्तसूर्य-व्याकरण, दीर्घ, २१, ८, मध्यम, २, ८) उद्धृत करते हैं : “आभास्वर लोक में अचिरोपपन्न सत्त्व लोकधातु-संवर्तनी के नियमों को यथार्थ नहीं जानते । जव तेजःसंवर्तनी होती है तब वह अचि को ऊपर उठते और ब्राह्म विमानों को दग्ध होते देखते हैं; वह भयभीत, दुःखी और विक्षिप्त होते हैं और कहते हैं कि “यह अनि यहाँ तक न आये" किन्तु जो सत्त्व आभास्वर लोक में चिरोपपन्न होते हैं वह कल्प के प्रवर्तनों को जानते हैं और अपने भीत साथियों को यह कह कर आश्वासन देते हैं कि "मित्रो! भय न करो। मित्रो ! भय न करो। यह अचि ब्राह्म विमान को पूर्व दग्ध कर अन्तहित हो गयी है।" इससे हम अच्छी तरह देखते हैं कि द्वितीय घ्यानभूमिफ देव कैसे नानात्वसंज्ञी हैं । प्रथम ध्यान के लोकों के दाह पर उनमें अचि के आगम या व्युपगम की संज्ञा होती है, भीत या अभीत की संज्ञा होती है। वैभाषिकों का यह विवेचन कि यह देव सुखादुःखासुखसंज्ञी हैं, सुष्टु नहीं है। ४. “एक काय और एक संज्ञा के रूपी सत्त्व अर्थात् शुभकृत्स्न देव । यह चतुर्थ विज्ञान- स्थिति है।" इनकी एकत्व-संज्ञा है क्योंकि यह सुखेन्द्रिय से समन्वागत हैं । [२१] प्रथम ध्यान में संज्ञा का एकत्व है। यह क्लिष्ट संज्ञा है, क्योंकि यह शीलवतपरामर्श से संप्रयुक्त है। द्वितीय ध्यान में संज्ञा का नानात्व है। यह मौल ध्यान और सामन्तक की कुशल संज्ञा है। तृतीय ध्यान में संज्ञा का एकत्व है । यह संज्ञा विपाकज है। ५-७. यथा सूत्र में कहा है, प्रथम तीन आरूप्य अन्तिम तीन विज्ञान-स्थिति हैं।' विज्ञान-स्थिति क्या हैं? --यथायोग पाँच स्कन्ध या चार स्कन्ध । काम और प्रथम तीन ध्यान (३.७ सी देखिये ) से प्रतिसंयुक्त पाँच स्कन्ध है; आकाशान्त्यायतनादि तीन आरूप्य से प्रतिसंयुक्त बार स्कन्ध हैं। $ ३ चेतस उत्प्लावकत्वादिति चेतस औद्विल्यपरत्वात् [ध्या २६२.३] अग्नि से लोकधातु का क्षय, ३.९० ए-बी, १०० सी-डी। आगमध्यपगमसंज्ञित्वात् भीताभीतसंशित्वात् [ल्या २६२.६] अपिगः सन्ति सत्या ये सर्वशो रूपसंज्ञानां समतिकमादनन्तमाकाशमित्याकाशानन्त्या- यतनमुरसंपय विहरन्ति तयाफाशानन्यायतनोपगा देवाः। इयं पंचमी विमानस्थितिः। १