२८० अभिधर्मकोश उनका कुल अज्ञात होता और वह कहते कि "यह मायावी कौन है, देव है या पिशाच ?" वास्तव में अन्य तीर्थ्य अपभाषण करते हैं : कल्पशत के अन्त में लोक में ऐसा मायावी प्रादुर्भूत होता है जो अपनी माया से लोक का भक्षण करता है। २. अन्य कहते हैं कि बोधिसत्व इसलिये जरायुजयोनि से उत्पन्न होते हैं जिसमें निर्वाण के अनन्तर उनके शरीर-धातु का अवस्थापन हो सके ।' इन शरीर धातुओं की पूजा से सहस्रों मनुष्य तथा अन्य सत्त्व स्वर्ग और मोक्ष का [३१] लाभ करते हैं । वास्तव में बाह्य वीज (शुक्र, शोणित, कर्दमादि) के अभाव से औपपादुक सत्त्वों का शरीर मृत्यु के पश्चात् अवस्थान नहीं करता । अचि के सदृश यह निरवशेष अन्तहित होता है। किन्तु हम देखते हैं कि जो आचार्य बुद्ध की आधिष्ठानिकी' ऋद्धि मानते हैं उनको यह परिहार युक्त नहीं लगेगा। एक प्रश्न से प्रश्नान्तर उत्पन्न होता है। यदि औपपादुक सत्त्वों का काय-निधन होता है, तो सूत्र में यह कैसे उक्त है कि “उपपादुक गरुड़ उपपादुक नाग को खाने के लिये ले जाता है ?"३ सूत्रवचन है कि वह उसे खाने के लिये (भक्षार्थम्) नाग का उद्धरण करता है (उद्धरति)। ५ • यथान्यतोथिका अपभाषन्ते.....। यह तोथिक मस्करिन् आदि है--निर्ग्रन्थशास्त्र में पठित है : ऋद्धि भदन्त को दर्शयति । मायावी गौतमः। अन्यत्र भगवत् को उद्दिष्ट कर कहा है : कल्पशतस्याऽत्ययादेवंविधो लोके मायानी प्रादुर्भूय लोकं भक्षयति व्या २६६.८ व्याख्या का पाठ---मायया लोकम् । वसुबन्धु इस उद्धृत करते हैं। ["लोक का भक्षण करना", "लोकोपजीवी होना"]-मझिम, १.३७५ से तुलना कीजिये : समणो हि भन्ते गोतमो मायावी--....संयुत्त, ४.३४१, थेरगाथा, १२०९ को अर्थकथा । विभाषा, ८, ९-"तीथिक बुद्ध को उद्दिष्ट कर अपभाषण करते हैं कि वह बड़ा मायावी है और लोगों के चित्त को विक्षिप्त करता है।" और २७, ८ : पालि-तोथिक कहता है कि "गौतम, क्या तुम माया जानते हो? यदि तुम नहीं जानते तो तुम सर्वज्ञ नहीं हो; यदि तुम जानते हो तो मायावी हो।" विभाषा, १२०, १५ ॥ शरीरपातूनामवस्थापनार्थम् [व्याख्या २६६.१३] सुवर्णप्रभास के अनुसार शरीरधातु वैसे ही निस्वभाव हैं जैसे कि बुद्ध । (जे. आर. ए. एस. १९०६, ९७०)। एक काय-निधन है अर्थात् कायनाश : मरणकाल में शरीर अन्तहित होता है (अन्तर्षीयते) ......--कारणप्रताप्ति को यह शिक्षा है। शरीरधातु के अधिष्ठान और ऋद्धि पर ७.५२ देखिये। व्याख्या का व्याख्यानः "अधिष्ठान उस वस्तु को कहते हैं जिसका अधिष्ठान (अधितिष्ठति) मायावी यह कह कर करता है कि 'यह ऐसा हो'। इस ऋद्धि का यह प्रयोजन है अथवा इस ऋद्धि का इस वस्तु में उत्पाद होता है। अतः यह ऋद्धि आधिष्ठानिको कहलाती है।" चार प्रकार के गरुड और नागों पर ( डब्लू. दविसेर, ड्रेगन इन चाइना ऐंड जापान, १९१३) और किस क्रम से प्रथम द्वितीय का भक्षण करते हैं, दीर्घ,१९, २०, संयुत्त, ३.२४०। १६ नाग हैं जिनको (सागर, नन्दादि) गरुड़ों के आक्रमण से रक्षा होती है, उग्लू द० विसेर की टिप्पणी--३.८३ बी, चील ४८ देखिये। २ ३ २४६॥