पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२९१

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २८१ 2 सूत्र यह नहीं कहता कि वह उसे खाता है। अथवा जब तक नाग मृत नहीं होता तब तक वह उसे स्वाता है किन्तु वह मृत नाग से तृप्त नहीं होता (न पुनर्मूतस्यास्य तृप्यति) 1 सब से विस्तृत योनि कौन है ? उपपादुक योनि । क्योंकि इसमें सर्व नरकगति, सर्व देवगति तथा अन्य तीन गतियों का एक प्रदेश और अन्तराभव संगृहीत हैं। अन्तराभव-सत्व, अन्तराभव क्या है ? [३२]] मृत्यूपपत्तिभवयोरन्तरा भवतीति यः। गम्प्रदेशानुपेतत्वान्नोपपन्नोऽन्तराभवः ॥१०॥ १०. अन्तराभव मरणभव और उपपत्तिभव के बीच अन्तराल है। गम्य देश में प्राप्त न होने से हम नहीं कह सकते कि यह उपपन्न है।' संघभद्र एक दूसरे मत का निर्देश करते हैं जिसके अनुसार संस्वेदज योनि सब से अधिक विस्तृत है। 'मृत्यूपपत्तिभवयोरन्तराभवतीह यः। गम्पदेशानुपेतत्वानोपपन्नोऽन्तराभवः ।।--पृ. ४१ देखिये। [व्या २६७.६] अन्तराभव को संक्षिप्त पुस्तक-सूची। कोश,.३.१०-१५, ४०सी; ४.५३ ए-बी ४.३४ए, ३९, ९, अनुवाद पृ २५८ । कयावत्यु, ८.२--सम्मितीय और पुब्बसेलिय के विरुद्ध थेरवादी अन्तराभव का प्रतिषेध करता है। सम्मितीय और पुरसेलिय अन्तरापरिनिर्वायिन् नामक अनागामिन् के भव को मानते हैं (नीचे पृ० ३८ और ३.४० सी, टिप्पणी देखिये)। इनके अनुसार नारक, अस- जसत्त और आरूप्यगति के सत्वों का अन्तराभव नहीं होता। सम्मितीयनिकायशास्त्र, नैजियो, १२७२, तृतीय अध्याय, कारणप्रज्ञाप्तिशास्त्र, ११.५ (वद्धिस्ट कास्मालजी, ३४१)। वे निकाय जो अन्तराभव का प्रतिषेध करते हैं : महासधिक, एकव्यवहारिक, लोकोत्तरवादिन्, कुक्कुटिक, महीशासक, (वसुमित्र), नहा- सांधिक, महीशासक, विभज्यवादिन् (विभाषा, १९.४)-विभाषा कई मतों का उल्लेख, करती है : अन्तराभव का निषेध; त्रैवातुक उत्पत्ति से पूर्व अन्तराभव; कामोपपत्ति से पूर्व अन्तराभव; कामरूपोपपत्ति से पूर्व अन्तराभव केवल यही मत युक्त है। विभाषा, ६८, ८-७० : "यद्यपि मरण और उपपत्ति के काल और देश में भेद हो तथापि क्योंकि अन्तराल में कोई विनाश नहीं होता जिसके अनन्तर उपपत्ति हो यह निकाय अन्तराभव नहीं मानते।" विसुद्धिमग, ६०४, मध्यमकवृत्ति, ५४४ में मरण के अनन्तर ही उपपत्ति होती है : तेसमन्तरिका नत्यि । ब्राह्मणों के प्रत्य, विशेषकर श्लोकवातिक, आत्मवाद, ६२:--"विन्ध्यवासिन् ने अन्तराभव देह का प्रतिषेध किया है।" गोल्डस्टकर, अन्तराभव और अतिवाहिक, आतिवाहिक सांख्य सूत्र, ५.१०३ । [ए. वी. कीय, कर्ममीमांसा, पृ. ५९, बुलेटिन स्कूल ओरियंटल स्टडीज, १९२४, पृ. ५५४ का विचार है कि यह बिन्ध्यवासिन् सांत्य का आचार्य नहीं है जिसका ताकाकुसु ने लाइफ़ आव वसुबंध, जे. आर. ए. एस., १९०५ जनवरी के अंक में उल्लेख किया है। किस प्रकार "अशरीरी जोव एक नूतन आयतन प्राप्त करने के पूर्व महामेघ के तुल्य संसरण करता है" इस पर हापकिन्स, ग्रेट इपिक, ३९, जे. ए. ओ. एस. २२, ३७२१ मत