पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८४ अभिधर्मकोश वह इस आदर्श में तटाकस्थ सूर्य-प्रतिविम्ब का अपर प्रतिविम्ब देखता है । अत: इन तीन निदर्शनों से यह सिद्ध हुआ कि प्रतिविम्व द्रव्यसत् नहीं है। कारिका का एक दूसरा अर्थ भी हो सकता है। हम इसका अनुवाद देते हैं : "क्योंकि दो रूपों का एक ही देश में सहभाव नहीं होता।" दो रूप आदर्शतल और चन्द्र का प्रतिबिम्ब हैं। चन्द्र का प्रतिबिम्ब आदर्श पर पड़ता है। एक ही देश में हम आदर्शतल और चन्द्र-प्रतिविम्ब को नहीं देखते : यह प्रतिविम्ब दूरान्तर्गत दिखाई पड़ता है, जैसे कूप में उदक। किन्तु यदि वर्गद्रव्य प्रतिविम्ब का प्रादुर्भाव होता है तो वह आदर्शतल में उत्पन्न होगा, उसकी उपलब्धि आदर्शतल से अन्यत्र न होगी। अतः प्रतिबिम्ब कुछ नहीं है। यह केवल प्रतिबिम्बाकार भ्रान्त विज्ञान है (व्या २६८. ३] । इस विम्ब-आदर्शादि सामग्री का ऐसा प्रभाव है कि तथादर्शन होता है, एक प्रतिबिम्ब का, रूपसदृश प्रतिविम्ब का, दर्शन होता है। धर्मों का शक्ति-भेद अचिन्त्य है (धर्माणां शक्तिभेदोऽचिन्त्यः ) मान लीजिये कि प्रतिविम्ब द्रव्यसत् है। किन्तु आपके नय में यह निदर्शन का काम नहीं दे सकता क्योंकि इसकी तुलना उपपत्ति-भव से नहीं हो सकती। यह उपपत्ति-भव के सदृश नहीं है । १२ वी . क्योंकि यह सन्तानवर्ती नहीं है। प्रतिबिम्ब विम्बसन्तानभूत नहीं है क्योंकि प्रतिबिम्ब का प्रादुर्भाव आदर्शसम्बद्ध है, [३६] क्योंकि प्रतिबिम्ब और बिम्ब का सहभाव है। यथा मरण-भव का उपपत्ति-भव सन्तानभूत है उस प्रकार विम्ब का प्रतिबिम्ब नहीं है। उपपत्तिभव मरणभव के पश्चात् होता है और [अन्तराभव के कारण] दोनों में बिच्छेद हुए बिना उसकी उत्पत्ति देशान्तर में होती है। इसलिये प्रतिविम्व के दृष्टान्त का साम्य नहीं है। १२ बी. क्योंकि इसकी उत्पत्ति दो कारणों से होती है। दो कारणों से, बिम्व और आदर्श से, प्रतिविम्ब का प्रादुर्भाव होता है। इन दो कारणों में आदर्श का, जो प्रधान कारण है, आश्रय लेकर प्रतिविम्ब उत्पन्न होता है। इसके विरुद्ध उपपत्तिभव का सम्भव दो कारणों से नही होता, केवल एक कारण से होता है और मरण-भव से अन्य इसका प्रधान कारण नहीं होता। उपपादुक-सत्त्वों के उपपत्तिभव का कोई बाह्य आश्रय नहीं होता क्योंकि उनका आकाश में प्रादुर्भाव आकस्मिक होता है और जो सत्त्व शुक्र- शोणित-कर्दम से उत्पन्न होते हैं उनके यह वाह्य रूप प्रधान कारण नहीं हो सकते क्योंकि वह अचेतन हैं। अतः युक्ति अन्तराभव के अस्तित्व को सिद्ध करती है क्योंकि इन दो भवों के बीच विच्छेद हुए विना उपपत्ति-भव मरण-भव से प्रवृत्त होता है। आगम भी अन्तराभव के अस्तित्व को सिद्ध करता है। 'शाक्ने, सैक सांत कांत, २.२०० से तुलना कीजिये।