पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २८७ अन्तहित होती है । इस सूत्र के होते हुए यह मानना कि अन्तरापरिनिर्वायी अन्तर देवों के लोक का निवासी है शुद्ध परिकल्प है क्योंकि काल और देश के प्रकर्ष से इन अन्तरों को तीन भाग में विभक्त नहीं कर सकते। किन्तु अन्य आचार्य- विभाषा, ६९, ७ के साक्ष्यी के अनुसार यह विभज्यवादिन है-इस प्रकार इसका व्याख्यान करते हैं। वह अन्तरापरिनिवांयी है जो आयुःप्रमाण के अन्तर में या देवसमीपान्तर में क्लेशों का प्रहाण करता है। वह विविध है। वह 'धातुगत' कहलाता है यदि धातुगतमान हो, [अर्थात् रूपधातु के लोक में उपपन्नमात्र हो--इस प्रकार वह उन क्लेशों का प्रहाण करता है जिनके कारण उसकी उपपत्ति रूपधातु में होती है और जो अब भी वीजावस्था में हैं] यह निर्वाण का लाभ करता है । 'संज्ञागत' वह कहलाता है जो रूपावचर विपयों की संज्ञा के समुदाचार की अवस्था में देर से परिनिर्वृत होता है। 'वितर्कगत' वह है जो और भी देर से विपयोत्पादित वितर्को (चेतनादि) के समुदाचार की अवस्था में परिनिवृत होता है। इस प्रकार तीन अन्तरापरिनिर्वायी होते हैं जो सूत्र के लक्षणों के अनुसार हैं और जो आयुःप्रमाण के अन्तर में अर्थात् उस लोक के देवों के आयुप्य-प्रमाण के परिसमाप्त हुए बिना निर्वाण का लाभ करते हैं जहाँ वह उपपन्न होते हैं । अथवा प्रथम अन्तरापरिनिर्वायी देवनिकायसभाग का परिग्रह कर वैसे ही निर्वाण का लाभ करता है। दूसरा देवसमृद्धि का अनुभव कर; तीसरा देवों की धर्मसंगीति ( = धर्मसांकथ्य) में प्रवेश पाकर, निर्वाण का लाभ करता है। व्या २७२. १५] एक दोप दिखाते हैं : “यदि अन्तरापरिनिर्वायिन् एक आर्य है जो पुनः उपपन्न होता है, देवसमृद्धि का अनुभव करता है, देवों को धर्मसंगीति में प्रवेश करता है तो उपपद्य-परिनिर्वायी (अक्षरार्थ-जो पुनः उपपन्न हो निर्वाण का लाभ करता है) कैसा होगा ?" इसका वह यह उत्तर देते हैं कि उपपद्य- परिनिर्वायी प्रकर्षयुक्त संगीति में प्रवेश कर परिनिर्वृत होता है और यह समझा कर कि कुछ कहने का अभी अवकाश है वह पुनः कहता है कि उपपद्यपरिनिर्वायी आयु का बहुक्षय [४०] [अन्तरापरिनिर्वायी से अधिक] करता है : [उसे 'उपपद्य' कहते हैं क्योंकि वह आयु का उपधात कर (आयुरुपहत्य) निर्वाण का लाभ करता है।' किन्तु इन सब धातुगतादि की देशगति में विशेष का अभाव हैं । अतः वह सूत्र के दृष्टान्तों से सम्बन्धित नहीं होते। आरूप्यधातु में भी ऐसे आर्य हैं जो आयुःप्रमाणान्तर में ही (३.८५ ए.). मूलपाठ-आयुःप्रमाणान्तरे देवसमीपान्तरे या यः क्लेशान् प्रजहाति सोऽन्तरापरिनिर्वायी व्याख्या २७२.५] विभज्यवादियों के इस व्याख्यान से पुरगलपत्ति, १६ के व्याख्यान की तुलना करनी चाहिये। अन्तरापरिनिर्वायो 'उपपन्नं वा समनन्तरा अपत्तं व वेमन्नं आयुपमाण' मार्ग का संमुखोनाव करता है। उपहच्वपरिनिन्यायो 'अतिक्कमित्वा वैमझ आयुपमार्ण उपहच्च व कालक्रिया' मार्ग का साक्षात्कार करता है [टीका के अनुसार उपहच्च = उपगन्त्वा, अतः "मरण-स्यान पर अवस्थित"]-कयावत्यु, ४.२ पर (क्या उपपन्न होफर महंत हो सकता है। बुद्धघोस उपहच्चपरिनियाविन् के स्थान में 'उपपञ्जपरिनिवामिन् का प्रयोग करने के लिये उत्तरापथकों को भर्त्सना करते हैं। १