पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२९८

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२८८ अभिधर्मकौश निर्वाण का लाभ करते हैं किन्तु वहाँ अन्तरापरिनिर्वायी नहीं होते। इस श्लोक में यह बात स्पष्ट कर दी गई है--"ध्यानों से चार दशिका, आरूप्यों से तीन सप्तिका, संज्ञा से एक पकिका। इस प्रकार वर्ग बद्ध होता है। यदि हमारे विपक्षी इस सूत्र का पाठ नहीं करते तो हम क्या कर सकते हैं ? शास्ता के परिनि- वृत होने पर सद्धर्म का कोई नायक न रहा । अनेक निकाय बन गये हैं जो अपनी कल्पना के अनुसार अर्थ और अक्षर को बदलते हैं। हमारा कहना है कि जो आचार्य इन सूत्रों को मानते हैं उनके लिये युक्ति और आगम दोनों से अन्तराभव या 'अन्तराभव-स्कन्ध' का अस्तित्व सिद्ध होता है। किन्तु हम कुछ दोष देखते हैं। ए. अन्तराभव-वाद का दूषीमारसूत्र से विरोध है उसका परिहार करना चाहिये। [४१] इस सूत्र का वचन है : “दूषीमार [अनुच्छन्द तथागत के श्रावक विदुर के सिर को मुष्टि से अभिघात पहुँचा कर स्वशरीर से ही अवीचि महानरक में पतित हुआ [व्या २७६.५] (स्वशरीरेणैव प्रपतितः) । (आशय और क्षेत्रविशेष के योग से) अति उदीर्ण और परिपूर्ण (अर्थात् 'उपचित', ४ . १२०) कर्मों का विपाक मरण के भी पूर्व होता है। अतः मार पहले दृष्टधर्म में विपाक का प्रतिसंवेदन करता है और पश्चात् नारक विपाक का अनुभव करता है। अतः सूत्र में उक्त है कि मार जीते ही नारकी ज्वालाओं से आलिंगित होता है, उसकी मृत्यु होती है, वह अन्तराभव का परिग्रह करता है । यह अन्तराभव नरकगमन करता है और वहाँ नरकोप- पत्ति होती है। बी. सूत्र के अनुसार पाँच सावध आनन्तर्य हैं इनके कारण सत्व नरक में समनन्तर उपपन्न होता है। (समनन्तरं नरकेषूपपद्यते) (४.९७) [व्या २७६ . १३] । हमारा कहना है कि 'समनन्तर' शब्द का अर्थ 'अन्तर के बिना', 'अन्य गति में गये विना' है। यह उपपद्यवेदनीय (४. ५० बी) कर्म हैं। यदि आप सूत्र की यथारुत कल्पना करें तो यह प्रसंग प्राप्त होंगे। आप कहेंगे कि पाँच आनन्तयों के करने से ही नरकगमन होता है; आप कहेंगे कि सावद्यकारी आनन्तर्य- ३

देखिये। आरूप्य में अन्तरा-मरण होता है। अतः आरूप्यावचर सत्व आरूप्यभव के सहस्रों कल्पों की परिसमाप्ति के पूर्व निर्वाण में प्रवेश कर सकता है। इस श्लोक के व्याख्यान के लिये बुद्धिस्ट कास्मालॉजी, १४१, २३५, अंगुत्तर, ४. ४२२ शुआन-चार : धर्मराज शास्ता बहुकाल हुआ (विवृति--९०० वर्ष हुए) कि परिनिर्वाण मैं प्रवेश कर गये धर्म के महासेनापति (विवृत्ति-शारद्वतीपुत्र, आदि) भी परिनिर्वाण में प्रवेश कर चुके हैं.. मध्यम, ३०, २५; मज्झिम, १.३३२ जहाँ ककुसन्ध और विधुर (-विदुर) है। थेरगाथा, ११८७ (पाठान्तर, विधूर और विदूर) --मिसेज रोजडेविड्स "दुस्सि- मार का पूर्व जन्म का नाम है;" व्याख्या : दूर्षी नाम मार : घ्याख्या २७६.६] । कथावत्यु,८.२ के अन्यतीथिक का मत है कि नरकोपपत्तिभव के पूर्व अन्तराभव नहीं होता। पंचानन्तर्यकर्माणि यानि कृत्वोपचित्य समनन्तरं नरकेषूपपद्यते । का उल्लेख २