पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२९९

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २८९ क्रिया के अनन्तरही नरक में उपपन्न होता है अथवा वह दृष्टधर्म में मृत्यु को प्राप्त हुए विना वहां उपपन्न होता है। [पुनः हमारे वाद के अनुसार नरकोपपत्ति समनन्तर होती है। यह अन्तरा- भवोपपत्तिपूर्वक नहीं होती।] हमको अन्तराभव का उपपद्यमानत्व इष्ट है क्योंकि यह मरण-भव के अनन्तर की उपपत्ति के अभिमुख है । हम यह नहीं कहते कि यह उपपन्न होता है (उपपन्नो भवति) (३. १० डी). [४२] आपको इस श्लोक का व्याख्यान करना चाहिये : "हे ब्राह्मण ! तुम्हारा मृत्युकाल समीप है, तुम जराजीर्ण और रुग्ण हो, तुम यम के समक्ष हो, तुम्हारे लिये अन्तरावास नहीं है और तुम्हारे पास पाथेय भी नहीं है”। वसुबन्धु-आप सोचते हैं कि इस श्लोक से यह प्रदर्शित होता है कि अन्तराभव का अस्तित्व 'नहीं है। किन्तु हम 'अन्तरावास' का अर्थ 'मनुष्यों में (मनुष्येषु) आवास' करते हैं। "भरणगत हो कर तुम पुनः यहाँ नहीं आओगे।" अथवा श्लोक का यह अभिप्राय है कि "अन्तराभव के गमन में कोई विराम नहीं है, तुमको नरकोपपत्ति-देश को जाना होगा।" अन्तराभव का प्रतिषेधक पूछेगा कि यह कहने के लिये हमारे पास क्या आधार है कि इस वाक्य का यह अभिप्राय है। यह अभिप्राय नहीं है। आपके लिये भी समान प्रश्न है। यदि इस प्रकार दो दोष तुल्य हों तो अन्त में आप क्या प्रमाण देंगे? हम कहना चाहते हैं कि दूषीमार- सूत्रादि का जो व्याख्यान अन्तराभव के प्रतिषेधक ने दिया है और जो व्याख्यान हमने दिया है उनका उक्त सूत्र से विरोध नहीं है। अतः यह सूत्र अन्तराभव के अस्तित्व या अभाव में ज्ञापक नहीं हैं। वही सूत्र ज्ञापक है जो अनन्यगतिक है'; जो एक ही अर्थ घोतित करते हैं और तद्विरुद्ध अर्थान्तर को द्योतित नहीं करते। उनके सदृश जिनको हमने पृ० ३६-३८ में उल्लिखित किया प्रश्न है कि अन्तराभव की आकृति क्या है ? ३ को वा अन्तराभवस्य उपपद्यमानत्वं नेच्छति [मरणभवानन्तरोपपत्त्यभिमुखत्वान्नरकेषूपद्यत इति ब्रूमः] न तु ब्रूम उपपन्नो भवतीति। शुआन्-चाङ : अथवा किसको अन्तराभव का उपपद्यमानत्व इष्ट नहीं है ? 'नारक सत्त्व' इस शब्द से अन्तराभव भी प्रज्ञप्त होता है। जब मरण-भव के समनन्तर अन्तराभव का उत्पाद होता है, तब हम इसके लिये उपपत्ति भी कह सकते हैं क्योंकि यह उपपत्ति का उपाय है। सूत्रवचन है कि सावधकारी को उत्पत्ति'नारक सत्व' के रूप में अनन्तर होती है। सूत्र यह नहीं कहता कि उस काल में उपपत्ति-भव होता है। संयुक्त, ५, ३, विभाषा, ६९, ५- व्याख्या में इसके अंश हैं : उपनीतवया द्विज....... वासोऽपि हि नास्ति तेऽन्तरा । पाथेयं च न विद्यते तव ।। [व्या २७६:२४] शुआन्-चार : पूर्व मार्ग से जाना चाहते हो, तुम्हारे पास पाथेय नहीं है। मार्ग मैं वास करना चाहते हो, अन्तरा में कोई वासन ही हैं।" धम्मपद, २३७ का पाठ : उपनीतवयो व दानि सि, सम्पयातो सि यमस्स सन्ति । वासो पि च ते नत्थि अन्तरा। पाथेय्यं पि च तेन विज्जति । तुल्य एष भवतोऽप्यनुयोगः । व्या २७७.६] तज्ज्ञापकमनन्यगतिकम् । [व्या २७७.११] १ २ 1