पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३००

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अभिधर्मकोश एकाक्षेपादसावष्यत्पूर्वकालभवाकृतिः । स पुनमरणात्पूर्व उपपत्तिक्षणात्परः ॥१३॥ १३ ए-बी. जिस कर्म से पूर्वकालभव अर्थात प्रतिसन्धि के पश्चात् अनागत गति का सत्त्व आक्षिप्त होता है उसी कर्म से अन्तराभव भी आक्षिप्त होता है। अतः अन्तराभव की आकृति पूर्वकालभव की आकृति के तुल्य होती है।' जो कर्म नरकादि गति को आक्षिप्त करता है वही कर्म तत्प्रापक अन्तराभव को भी आक्षिप्त करता है। अतः अन्तराभव की आकृति उस गति के अनागत पूर्वकालभव (पृ. ४५) की सी होती है जिसके वह अभिमुख है। आक्षेप--शुनी, शूकरी प्रभृति के गर्भ में पंचगतिक सत्त्व गर्भस्थ ही मर सकता है। मान लीजिये कि इस गर्भ का स्थान नारक अन्तराभव लेता है। यदि इस अन्तराभव की आकृति नारक की है तो यह शुनी की कुक्षि का दाह करेगा। पूर्वकालभव में भी नारक नित्य प्रज्वलित नहीं होते, यथा उत्सदों में (३ . ५८ डी) । किन्तु यद्यपि नारक अन्तराभव प्रज्वलित हों तब भी, क्योंकि उनका आत्मभाव अच्छ (८. ३ सी) होता है, वह स्प्रष्टव्य नहीं हैं जैसे वह दृश्य नहीं हैं। अतः अन्तराभव का संश्लेष नहीं होता। इसीलिये कुक्षि का दाह नहीं होता । पुनः कर्म का प्रतिबन्ध भी होता है। अन्तराभव का प्रमाण पांच या छ वर्ष के शिशुका होता है किन्तु उसकी इन्द्रियाँ व्यक्त होती हैं। [४४] बोधिसत्त्व का अन्तराभव पूर्ण यौवन को प्राप्त बोधिसत्त्व के सदृश होता है। वह लक्षण और अनुव्यञ्जनों के सहित होता है। अतः जब इस अन्तराभवस्थ ने माता की कुक्षि में प्रवेश करने की इच्छा की तब इसने चार द्वीपों के कोटिशत लोकधातुओं को अवभासित कर दिया। किन्तु हम जानते हैं कि बोधिसत्त्व की माता ने अपनी कुक्षि में प्रवेश होते एक श्वेत गजपोत' 2 १ ? एकाक्षेपावसावैष्यत्पूर्वकालभवाकृतिः । व्या २७७. १६, १३ अन्तराभवादि के आक्षेपक कर्म पर४.५३ ए. देखिये-यह वाद कथावत्यु ८.२(पृ. १०६) के तीथिकों का बताया जाता है : "कोई विशेष कर्म नहीं है जो अन्तराभव का उत्पाद करता है......" शुआन्-चाड का विचार है कि पांच गर्भो से पांच अन्तराभवों की उत्पत्ति होती है। इनमें से प्रत्येक एक भिन्न गति को जाता है। अतः यह कहा जाता है कि यह पांच अन्तरामद चाहे यह एक हो कुक्षि में क्यों न हों, न स्पृष्ट होते हैं और न प्रज्वलित होते हैं। भाष्य का पाठ 'कुक्षावसंश्लेषात्' है : “पयोकि कुक्षि से संश्लेष नहीं है।" व्याख्या : "अन्तरा- भव के आत्मभाव के अच्छ होने से अन्योन्यसंश्लेष नहीं होता। अतः दाह नहीं होता ...इत कारण से कुक्षि का दाह नहीं होता।" घ्या२७७.२३] पूर्णयून इव बोधिसत्त्वस्यान्तराभवः सलक्षणानुव्यञ्जनश्च । व्या २७७. २७] 'कोटिशतं चातुर्वीपकानामवभासितम् व्या २७७.२६]--यह साहस्र लोकधातु (३.७४) के बराबर है अर्थात् एक बुद्ध-क्षेत्र है। पाण्डर गजपोत । [व्या २७७.३०] 1 एक मिसाहलमहा-