पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३०१

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश को देखा था। यह कैसे ? यह निमित्तमात्र है क्योंकि दीर्घकाल हुआ कि बोधिसत्त्व तिर्यग्योनि से व्यावर्तित हुए। यथा कृको राजा दस स्वप्न देखे : करि, कूप, सक्तु, चन्दन, आराम, कलभ, दो कपि, पट और कलह-यह भविष्य अर्थ के निमित्तमात्र हैं। पुनः अन्तराभव कुक्षि को विदीर्ण कर योनि में प्रवेश नहीं करते किन्तु उत्पत्ति-द्वार से प्रवेश करते हैं । इसीलिये जुड़ियों में वह बड़ा होता है जो पीछे उत्पन्न होता है। किन्तु आप भदन्त धर्मसुभूति के इस श्लोक का क्या व्याख्यान करते हैं : "षड्दन्त और चतुष्पाद से विभूषित श्वेत हस्ती का काय धारण कर वह योनि में प्रवेश करते हैं और वहाँ पूर्ण ज्ञान के साथ शयन करते हैं यथा एक ऋषि अरण्य में प्रवेश करता है" ?.-इस श्लोक के व्याख्यान का स्थान नहीं है। यह न सूत्र है, न विनय, न अभिधर्म। यह एक व्यक्ति की रचना है. ..। किन्तु यदि इसका विवेचन करना आवश्यक है तो हम कहेंगे कि यह श्लोक बोधिसत्त्व का वर्णन करता है जैसा कि उनकी माता ने स्वप्न में उनको देखा था। [४५] रूपधातु 'अन्तराभव उत्कट अपत्राप्य के कारण संपूर्ण और सवस्त्र होते हैं (३ . ७० सी) । अन्तराभवस्थ बोधिसत्व भी सवस्त्र होते हैं। इसी प्रकार अपने प्रणिवान के वल से भिक्षुणी शुक्ला अन्तराभव में सवस्त्र थी। वह सवस्त्र योनि में प्रवेश करती है, सवस्त्र योनि से ६ निमित्तमात्र व्या २७७.३३] ५ 'कल्पशत' से आरम्भ कर, ४.१०८ व्याख्या में विस्तार के साथ कृको के गीत उद्धृत हैं। इसको तुलना महीशासकों के संस्करण से करनी चाहिये, नजियो, ११२२। यह शावाने, सैंक सांत कांत, २. ३४३ में दिया है। कृकी के गीतों पर बर्नफ, इन्द्रोडक्शन, पृ० ५६५, फिअर, कातालाग व पापिए ६ वफ़, ६५ । तोकिंवाई, स्टूडियन सुम समागवावदान (डार्मस्टाड, १८९८); मिनयेव, रेशाशें, ८९; ओल्डनवर्ग, जापिस्की १८८८, जे. आर. ए. एस, १८९३, ५०९; बुद्धिस्ट कास्मालजी, २३७ में दी हुई टिप्पणियां । विम्बिसार के स्वप्नों से कई बातों में सादृश्य है, यथा इस्सिंग, सककुस, १३, शावाने, २. १३७, अर्हत की माता और चक्रवतिन् के स्वप्न (हस्ती आदि) एस बी ई. २२.२३१, २४६ । इन्हीं आचार्य का ३. ५९ ए-सी में उल्लेख है जहाँ हमने कुछ सूचनायें एकत्र की हैं। शुआन् चाड : "इस श्लोक के व्याख्यान करने का कोई स्थान नहीं है क्योंकि यह निपिटक में नहीं है, क्योंकि श्लोकों के ग्रन्यकार सत्य (?) का उल्लंघन करते हैं।" परमार्थ : यह सूत्र में नहीं है.....यह केवल शब्द-विन्यास है। बुद्धिमान् पुरुष अर्थ को शास्त्र में उपनिबद्ध करते हैं... वतुमित्र : महासांधिकों का विचार है कि बोधिसत्त्व को कलल-अदादि को अवस्था नहीं होती; उनका विचार है कि वह महाहस्ती के रूप में कुक्षि में प्रवेश करते हैं और कुक्षि को विदीर्ग कर उत्पन्न होते हैं । भव्य एक-व्यवहारिकों का ऐसा ही मत बताते हैं (वासीलोफ़, २३६, राकहिल, १८८)। विभाषा, ७१, ६। 3 ८