पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३०३

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २९३ १४ वी. वह कर्म के ऋद्धि-वेग से समन्वागत है। वह कमद्धिवेगवान् है : कर्म से प्रवृत्त ऋद्धि-अर्थात् आकाशगमन के वेग से समन्वागत (बान्) है (७.५३ सी) । स्वयं बुद्ध उसके वेग को नहीं रोक सकते क्योंकि वह कर्म-बल से समन्वागत है। १४ सी. उसकी इन्द्रियाँ सकल, सम्पूर्ण हैं। [४७] वह सकलाक्ष है। 'अक्ष' शब्द का अर्थ 'इन्द्रिय' है। १४ सी. वह अप्रतिघवान् है । वह अप्रतिघवान् है : प्रतिध, जो प्रतिघात करे; अप्रतिघवान्, जिसको कोई प्रतिघात न हो । वज्र भी उसके लिये अप्रतिघ है। क्योंकि कहते हैं कि प्रदीप्त अय:पिण्ड को काटने से वहाँ क्षुद्र जन्तु पाये जाते हैं। जव एक अन्तराभव की उत्पत्ति किसी गति-विशेष में निश्चित होती है तो उस गति से, किसी बल से भी, १४ डी. उसका निवर्तन नहीं हो सकता। मनुष्य अन्तराभव मनुष्य अन्तराभव न रह कर देव अन्तराभव कभी नहीं होता । जिस गति के अनुसार उसकी आकृति है उस गति में उपपन्न होने वह जायगा। कामधातु का अन्तराभव क्या अन्य कामावचर सत्त्वों के सदृश कवडीकार आहार (३.३९) का भक्षण करता है ?---हाँ, किन्तु स्थूल आहार का नहीं। १४ डी. वह गन्ध का भक्षण करता है। इससे उसका नाम गन्धर्व है । 'गन्धर्व' वह है जो गन्ध (गन्ध) खाता है (अर्वति)। धातुओं का अनेक अर्थ होता है : अर्व' धातु को यदि हम गति के अर्थ में लें तो इसमें दोष नहीं है :" जो है ?-विविध मत हैं। कुछ के अनुसार नारक अन्तराभव केवल नारक अन्तराभवों को देखता है..... देव अन्तराभव केवल देव अन्तराभवों को देखता है। दूसरे आचार्यों के अनुसार तिर्यक् अन्तराभन नारक और तिर्यक् अन्तराभव दोनों को देखता है... अन्य नागार्यो के अनुसार पांच जाति पाँचों जातियों को देखती हैं। कद्धिवेगवान्–कयावत्यु के तीथिकों के अनुसार---सत्तो दिवचक्खुको विय अदिच्च- चक्खुको इद्धिमा विय अनिद्धिमा.. सकलाक्षः अप्रतिघवान-उसका आत्मभाव अच्छ है, ८.३ सी, पृ. १३७ विभाषा ६९, १४ में इसका विचार है।--दान्तिकों के अनुसार यह अयथार्थ है कि अन्तराभव-धातु, गति या नवीन भव का देश नहीं बदल सकता। सब कर्म जिनमें ५ आनन्तर्य संगृहीत हैं 'परिवर्तित हो सकते हैं. ....... जो अन्तराभव चतुर्य ध्यान में उपपन्न होने जाता है वह मिनादृष्टि का उत्पाद कर सकता है। उसका तब विनाश होता है और अनन्तर ही उसका स्यान नारक अन्तराभव लेता है....... स गन्धभुक्॥ लोत्सव और परमार्थ इसका निर्वचन नहीं देते । शुमान् चाङ ने अंशतः इसका अनुवाद दिया है। धातुपाठ, १.६१५, अर्व हिंसायाम-शकन्च, ६.१. ९४। १ २ अनिवर्त्यः। १