पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३०४

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२९४ अभिधर्मकोश गन्ध-भक्षण के लिये जाता है" (अर्वति गच्छति भोक्तुम् )। सिद्ध रूप गन्धर्व है, गान्धर्व नहीं। ह्रस्वत्व शकन्धु, कर्कन्धु के समान है। ६४८] अल्पेशाख्य' (हीनजातीय) गन्धर्व दुर्गन्ध खाता है । महेशाख्य सुगन्ध खाता है । अन्तराभव कितने काल तक अवस्थान करता है ? ए. भदन्त कहते हैं कि कोई नियम नहीं है। जब तक उत्पत्ति के लिये आवश्यक हेतुओं का सन्निपात नहीं होता तब तक वह अवस्थान करता है। वास्तव में एक ही कर्म से अन्तराभव और तदनन्तर का उपपत्ति-भव आक्षिप्त होता है और उनका एक निकायसभागत्व है [वह एक भव के हैं, २.४१] ' : अन्यथा अन्तराभव के आयुष्य (या जीवितेद्रिय) के क्षीण होने से मरण-भव का प्रसंग होगा। आक्षेप-~~-मेरु पर्वतके प्रमाण का भोजन-समुदाय ग्रीष्म की वर्षा में कृमि-समुदाय में परिवर्तित होता है। क्या इस देश में वह अन्तराभव प्रतीक्षा करते थे जो एक साथ बहुसंख्या में इन कृमियों में उपपन्न होते हैं अथवा यह अन्तराभव कहाँ से आते हैं ? सूत्र और शास्त्र दोनों इस प्रश्न का उत्तर नहीं देते। हमारा कहना है कि अनन्त क्षुद्र जन्तु होते हैं जिनकी आयु अल्प होती है और जो गन्ध और रस में अभिगृद्ध होते हैं। यह गन्ध का घाण कर और तत्संप्रयुक्त अनुभूत रस का अनुस्मरण कर गन्ध और रस पर लुब्ध होते है और काल कर कृमिनिकायसभागोत्पादक कर्म का बोध करते है (विबोध्य) और गन्ध-रस की तृष्णा से वह कृमियों में उत्पन्न होते हैं। अथवा उसी काल जब कि कृमियों की उत्पत्ति (बहु समुदाय, विलीनावस्था में)के लिये आवश्यक वाह्य प्रत्यय प्रचुर रूप से सन्निपतित होते हैं कृमि-संवर्तनीय [४९] कर्म विपाकाभिनिर्वृत्ति के लिये वृत्ति का लाभ करते हैं (विपाकाभिनिवृत्ती वृत्तिं लभन्ते) व्या २८०.५] । यथा एक सत्त्व चक्रवति संवर्तनीय कर्म करता है: यह कर्म वृत्ति-लाभ नहीं करते जब तक कि वह कल्प नहीं आता जिसमें कि मनुष्य का आयुष्य. अस्सी सहस्त्र वर्ष का होता है (३.९५) । इसी कारण से भगवत ने कहा है कि कर्म-विपाक अचिन्त्य है (संयुक्त, २१) । 'अल्पशास्य अर्थात् अनुदार हीनवीर्य। निर्वचन--ईष्ट इतीशः । अल्प ईशोऽल्पेशः, यस्य सोऽल्पेशाख्यः। ४२२ (= अप्पपरिवार)- शुआन चाडः च्या २७९. २५]-ट्रेकनर, मिलिन्द,

"स्वल्प पुण्य का", रमार्थ--"स्वल्प

पुण्य-कुशल का।" यह विभाषा, ७२, ३ में व्याख्यात चतुर्थ भत है। अन्य मत और नीचे बी, सी, डी में दिये हैं। -यदि हम चोनो व्याख्याकारों का विश्वास करें तो वसुबन्धु इस चतुर्थे मत को पसन्द एकनिकायसभागत्वात्- हम समझते हैं कि अन्तराभव अति दीर्घकाल तक अवस्थान कर सकता है क्योंकि जिस हेतु से यह आक्षिप्त हुआ है, उसी से पूर्वकालभव शी आयु, जो प्रायः वीर्घ होती है, आक्षिप्त होती है। [च्या २७९.२८] ऊपर पृ० ४३ सिप्पणी २। सामग्री प्राप्य कालं च फलन्ति खलु देहिनाम् [न्या २८०.७] इस के अनुसार दिव्यावदान, ५४, अल्पेश आख्या २ करते हैं।