पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२९६ अभिधर्मकोश होता है उसी कर्म से उसके अन्तराभव का भी आक्षेप होता है। कोई यह नहीं कह सकता कि महिष-भव के पूर्व वृषभ का अन्तराभव होता है। 'प्रतिसन्धि' कैसे होती है ? विपर्यस्तमतिर्याति गतिदेशं रिरंसया। गन्धस्थानाभिकामोऽज्य ऊर्ध्वपादस्तु नारकः ॥१५॥ १५ ए-जी, विपर्यस्तमति रमण करने की इच्छा से गति-देश को जाता है। गम्य गति-देश को गमन करने के लिये अन्तराभव का उत्पाद होता है। कर्मों के योग से यह दिव्य-चक्षु से समन्वागत होता है। यह अपने उत्पत्ति-देश को, चाहे वह विप्रकृष्ट क्यों न हो, देखता है। वहाँ वह अपने माता-पिता की विप्रतिपत्ति को देखता है। उसकी गति अनुनय- सहगत और प्रतिघ-सहगत चित्त से विपर्यस्त होती है। यदि वह पुरुष है तो माता के प्रति उसमें पौंस्न राग उत्पन्न होता है; यदि वह स्त्री है तो उसमें पिता के प्रति स्त्रैणराग उत्पन्न होता है। इसके विपर्यय, पिता के लिये यह माता के लिये उसके प्रतिध उत्पन्न होता है। इनको वह सपत्न या सपत्नी के समान देखता है। यथा प्रज्ञाप्ति में कहा है कि "तब गन्धर्व [५१] में रागचित्त या द्वेषचित्त उत्पन्न होता है।" इन दो विपर्यस्त चित्तों से विपर्यस्तमति होकर, रमण करने की कामना से, वह उस देश में आश्लिष्ट होता है जहाँ इन्द्रिय-द्वय आश्लिष्ट हैं और उस विप्रतिपत्ति-अवस्था की अपने में अधिमुक्ति करता है। उस समय गर्भ-स्थान में अशुचि, शुक्र और शोणित होते हैं । अन्तराभन सुख का आस्वादन कर वहाँ अभिनिविष्ट होता है। उस काल से स्कन्धों का काठिन्य होता है। अन्तराभव विनष्ट होता है। उपपत्ति-भव, जिसे 'प्रतिसन्धि' कहते हैं, उत्पन्न होता है। यदि गर्भ पुरुष है तो यह योनि के दक्षिण पार्श्व में पृष्ठाभिमुख उत्कुटुक अवस्थित होता है। यदि यह स्त्री है तो गर्भ योनि के वाम पार्श्व में कुक्षि के अभिमुख अवस्थित होता है । जो अव्यंजन है वह उस ईर्यापथ में पाया जाता है जिसमें अन्तराभव उस समय होता है जब वह कल्पना करता है कि मैं रति की क्रिया कर रहा हूँ। वास्तव में अन्तराभव सकल इंद्रियों से समन्वागत होता है। अतः वह पुरुष या स्त्री के रूप में प्रवेश करता है और अपने व्यंजन के त्यागाच्च। गतिनियतानां हि कर्मणाम् उपपत्तिवैचित्र्यम् दृष्टं कल्माषपादादिवद् इति नास्त्येष दोष इत्याचार्यसंघभद्रः व्या २८०.१७] । व्याख्या के तिव्बती संस्करण के अनुसार : उपपत्तिप्रत्ययवैचित्र्यम् । विपर्यस्तमतिर्याति गतिदेशं रिरंसया । व्या २८०.२१] यह वाद कामोन्मत्त प्रेतों का स्मरण दिलाता है जो प्राचीन गन्धर्व हैं। इस वाद ने तन्त्रसाहित्य में स्थान पाया है : थियरी दे दूत काजे, १२५ में चण्डमहारोषणतन्त्र, अध्याय १६ देखिये। । दक्षिण में पुत्र, वाम में दुहिता, अवदानशतक, १. १४; शावान, [क संत कांत, १.३८० के चीनी संस्करणों में स्थान परिवर्तित है।