तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २९७ अनुरूप अवस्थान करता है। प्रतिसन्धि के अनन्तर गर्भ की वृद्धि होती है और तभी वह अपने व्यंजन का त्याग कर सकता है। प्रश्न है कि अभिनव सत्त्व के चक्षुरादि इन्द्रियभूत इस उपादायरूप का आश्रय क्या है ? एक मत के अनुसार शुक्र और शोणित के महाभूत । एक दूसरे मत के अनुसार इनसे भिन्न महाभूत जो कर्म से अभिनिवृत्त होते हैं और जिनका संनिश्रय शुक्र और शोणित है। प्रथम मत-शुक्र और शोणित अनिन्द्रिय हैं। जव अन्तराभव निरुद्ध होता है तव उनके इन्द्रियाँ होती हैं। यह गर्भ की प्रथमावस्था है जिसे 'कलल' कहते हैं। यथा वीज के निरोध के क्षण में अंकुर का उत्पाद होता है। इस प्रकार सूत्र के यह पद युक्त हैं: "शुक्र-शोणितभूत कलल से शरीर का उत्पाद होता है यथास्त : माता-पिता की अशुचि में] (मातापित्र- [५२] शुचिकललसंभूत)" और "हे भिक्षुओ! दीर्घकाल से तुमने श्मशान को वर्धित किया है और रुधिरबिन्दु ग्रहण किया है।" द्वितीय मत-भिन्न महाभूत इन्द्रियों के आश्रय हैं, यथा पर्णकृमि की इन्द्रियों का होता है। [पर्ण-महाभूतों का संनिश्रय लेकर (पर्णमहाभूतानि उपनिश्रित्य) कर्म-बल से भूतान्तर उत्पन्न होते हैं जो इन्द्रिय-स्वभाव को आपन्न होते हैं] यह आक्षेप होगा कि इस विकल्प में "माता- पित्रशुचिकललसंभूत" [व्या २८१. १२] इस सूत्रपद का व्याख्यान नहीं किया गया है। सूत्र के अनुसार शुक्रशोणितभूत कलल से (मातापित्रशुचि) (सेन्द्रिय) शरीर संभूत होता है। किन्तु 'कलल' शब्द के वचन से यह अभिप्राय है कि अशुचि (शुक्र-शोणित) के संनिश्रय से भूतान्तर की उत्पत्ति होती है : [शुक्र-शोणित का संनिश्रय ले कर कललाख्य अन्य सेन्द्रिय महाभूतों का सहोत्पाद होता है । इस प्रकार जरायुज और अण्डज योनि के सत्त्व अपने गति-देश को जाते हैं। अभिधर्माचार्य कहते हैं कि अन्य योनियों के लिये यथायोग कहना चाहिये। १५ सी. अन्य गन्ध और स्थान की अभिलापा से जाते हैं। २ ३ वाग्भट और चरक के आयुर्वेद के वादों से (बौद्ध), तुलना कीजिये, विडिश, बुद्धज़ गेवुर्त, ४८ और प्रशस्तपाद (वी. एस. एस. १८९५), ३३-३४ । व्याख्या--एकस्मिन्नेव क्षणे बीजं निरुध्यते अंङ्करश्चोत्पवते तुलादण्डनामोन्नामवत् व्या २८१.२] संस्कृत पाठ--वल्मीक इति भिक्षो अस्प कायस्पतदधिवचनं रूपिण औदारिकस्य चातु- महाभूत् [इक] अस्य ओदनफुल्मापोपचितस्य मातापिनशुचिकल्लसंभूतस्य..... [व्या २८१.६ । पालिपाठ--मज्झिम, १.१४४ : बम्मोको ति खो भिक्षु इमस्सेतं चातुम्म- हाभूतिफस्स कायस्स अधिवचनं मातात्तिकसंभवस्त ओदनकुम्मासूपचयस्स अनिच्युन्छादन- परिमद्दन दनविद्धंसनधम्मस्स। दीर्घकालं वो भिक्षवः] कटसो पिता] [व्या-कटसि] रुधिरविन्दुरपात्तः [व्या २८१.९]--इस वाक्य का पहला अंसा, संयुत्त, २.१७८, चुल्लवग्ग, १२.१.३, अंगुत्तर, २.५४, बेरगाया, ४५६, ५७५, उदान, ६.८, नेत्तिप्पकरण, १७४ । गन्यस्यानाभिकामोऽन्यः।