पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३०८

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२९८ अभिधर्मकोश संस्वेदज योनि के सत्त्व गन्ध की कामना से अपने गति-देश को जाते हैं। कर्म-प्रत्ययवश यह शुद्ध या अशुद्ध होता है। उपपादुक योनि के सत्त्व स्थान की अभिलाषा से जाते हैं। किन्तु प्रश्न है कि नरक में आवास की अभिलाषा कैसे हो सकती है ? [जैसा हमने [५३] देखा है, योनि में प्रतिसन्धि ग्रहण करने के लिये जब वह जाता है तब अन्तराभवस्थ की मति राग और द्वेष से विपर्यस्त होती है। प्रस्तुत अवस्था में भी अन्तराभव की मति विपर्यस्त होती है और वह अयथार्थ का ग्रहण करता है। वर्षा और वायु के शैत्य से वह अपने को पीड़ित पाता है । वह उष्ण नरक के प्रदीप्त देश को देखता है, उष्णता की अभिलाषा से वह वहाँ दोड़ कर जाता है । वह सूर्य और प्रज्वलित वायु के ताप से पीड़ित होता है । वह शीत नरक के शीत देश को देखता है; शैत्य की कामना से वह वहाँ दौड़ कर जाता है। पूर्वाचार्यो' के अनुसार वह देखता है कि नरकवेदनीय पूर्वकृत कर्मों के विपाक का प्रतिसंवेदन करने के लिये मेरी क्या अवस्था होगी; वह तादृश सत्त्वों को देखता है; वह उस देश में दौड़कर जाता है जहाँ वह सत्त्व हैं। देव अन्तराभव--जो देवगति को प्राप्त होते हैं-ऊर्ध्व गमन करते हैं जैसे कोई आसन से उठता हो। मनुष्य, तिर्यक्, प्रेत अन्तराभव मनुष्यादिवत् गमन करते हैं। १५ डी. नारक पैर ऊपर कर के जाता है।' यथा श्लोक में उक्त है : "जो ऋषि, संयत और तपस्वियों का अपवाद करते हैं वह सिर नीचे और पैर ऊपर कर नरक में पतित होते हैं। हमने कहा है कि जो अन्तराभव कुक्षि में (जरायुज और अण्डज) प्रतिसन्धि ग्रहण [५४] करते हैं वह विपर्यस्तमति मैथुन की कामना से वहाँ गमन करते हैं। क्या यह सामान्य नियम है ? नहीं। सूत्र का उपदेश है कि गर्भावक्रान्ति चार हैं।' पूर्वाचार्या योगाचारा आर्यासङ्गाप्रभृतयः (व्य २८१.२७)-पू-कुआंग के अनुसार, जिनका उल्लेख साएको ने किया है, यह सौत्रान्तिक या सर्वास्तिवादी हैं। 'मैं समझता हूँ कि यही अर्थ ठीक है किन्तु मैं लोत्सव, परमार्थ और शुआन-धाम के संस्करण और व्याख्या को विवृतियों को एक दूसरे से मिलाने में सफल नहीं हूँ। अर्ध्वपावास्तु नारकाः। संयुक्त, २७, ५ जातक, ५:२६६ : एते पतन्ति निरये उद्धपादा अवसिरा । इसीनं अति- बत्तारो संयनानं तपस्सिन।अर्ध्वपाद, अवाशिरः के लिये रीजविड्स-स्टोड, अवंसिर, सुत्तनिपात, २४८, संयुत्त, १.४८, इत्यादि देखिये । प्रायः यह "नारकों को विशेष अवस्था नहीं है (जैसा महावस्तु, ३.४५५, ३ में है) किन्तु यह उस सत्त्व की अवस्था है जो नरक में पतित होता है। यथा मनु, ३. २४९, ८. ९४. साएको को विवृत्तियों के अनुसार ऋषि बुद्ध हैं। संयत प्रत्येक है, तपस्वी बोधिसत्व हैं। लोकप्रज्ञाप्ति (कास्मालजी, १.२३९) के व्याख्यान भिन्न हैं। अतिवस्तार:- अधिक्षेप्तार:- अपवदितारः व्या २८१.३१] पू. ५५, टिप्प. १ में उद्धृत सूत्र के अनुसार गर्भसंक्रान्ति' पाठ होना चाहिये किन्तु गम्भाः वक्कन्ति, गन्भे ओक्कन्ति (दोघ, ३.१०३, २३१, चूलनिद्देस, ३०४) और कारिका १७ 'गर्भावक्रान्ति' है। ४ में