पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३१०

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अभिधर्मकोश [५५] अण्डज नित्य मूढ़ होते हैं। किन्तु क्या यह कहना यथार्थ है कि "अण्ड से संजात सत्त्व कुक्षि में प्रवेश करता है?"--यह अदोष है । जो अण्ड से उत्पन्न होता है वह पूर्व कुक्षि में प्रवेश करता है। अथवा यहाँ भाविनी संज्ञा है। यथा सूत्र-वचन है कि 'संस्कृतम् अभिसंस्करोति' और लोक में कहते हैं : "वह ओदन को पकाता है", "पिष्ट को पीसता है।" प्रवेश, स्थिति और निष्क्रमण के समय संप्रजन्य और संप्रजन्य का अभाव क्या है ? जिसका पुण्य अल्प है वह प्रवेश करता है क्योंकि वह विचारता है कि "वायु बहती है, देव वरसता है; इससे शीत होती है, आँधी चलती है। लोग कोलाहल मचाते है" और क्योंकि वह इन क्लेशों से वचना चाहता है इसलिये वह विश्वास करता है कि मैं वन, वनषण्ड, मूल या पर्ण की कुटी में , शरण के लिये प्रवेश करता हूँ अथवा वृक्षमूल या कुड्यमूल का आश्रय लेता हूँ। पश्चात् वह कल्पना करता है कि मैं इस वनषण्ड, इस कुटी में अवस्थान करता हूँ और इससे निष्क्रमण करता हूँ। यह विपरीत संज्ञा और अधिमुक्ति हैं। इसी प्रकार जिस सत्त्व का प्रभूत पुण्य होता है वह विश्वास करता है कि मैं आराम, उद्यान, प्रासाद, परिगण, मण्डप में प्रवेश करता हूँ, वहाँ अवस्थान करता हूँ और वहाँ से निष्क्रमण करता हूँ। [५६] जिस सत्त्व का संप्रजन्य है वह जानता है कि मैं कुक्षि में प्रवेश करता हूँ, वहाँ अवस्थान करता हूँ और वहाँ से निष्क्रान्त होता हूँ। सूत्र में उपदिष्ट हैं गांवक्रान्तयस्तिस्रश्चक्रवतिस्वयंभुवाम् । कर्मज्ञानोभयेषां वा विशदत्वाद् यथाक्रमम् ॥१७॥ १७. तीन गर्भावक्रान्ति-चक्रवतिन् और दो स्वयंभू—यथाक्रम कर्म की विशदता से ज्ञान की विशदता से, कर्म और ज्ञान की विशदता से। दो स्वयंभू प्रत्येक बुद्ध और संबुद्ध हैं। १ (व्याख्या २ सूत्र वचन है : यः सर्वाण्यसंप्रजानन् करोति एषा प्रथमा गर्भसंक्रान्तिः .... का पाठ--गर्भावक्रान्ति) व्याख्या २८२.५ के अनुसार] शुआन्-चाड के अनुसार--मूल में यह है : योऽपि जनिष्यते सोऽप्यण्डजः अर्थात्-- अंडाजनिष्यतेऽण्डज इति। व्याख्या २८२.६] संघभद्र के अनुसार---अण्डाज्जातो जनिष्यते जायते चेत्यण्डजः--यह पाणिनि ३.२.७५ के अनुसार है। [व्या २८२.११] । भाविनी संज्ञा भविष्यन्ती संज्ञा । [व्या २८२ . १३] ओदनं पचति । व्या २८२ . १५] 'यदि वह सम्यक् रीति से जानता है तो कैसे क्लिष्टचित्त [३.३८] से प्रतिसन्धि-बन्ध प्रस्थापित होता है ? क्योंकि मातृ-स्नेहादि के योग से चित्त क्लिष्ट होता है। २८२ . २५) गर्भावक्रान्तयस्तित्रश्चक्रवर्तिस्वयंभुवाम् । कर्मज्ञानोभयेषां वा विशवत्वाद्यथाक्रमम् ।। मध्यमकावंतार, १४९, म्यूसिमां १९१०, ३३६ देखिये। [व्या