तृतीय कौशस्थान : लोकनिर्देश ३०१ . यह सब 'भाविनी संना है : हम उस सत्त्व का उल्लेख करते हैं जो इस भव में चक्रवतिन् नादि होगा। चक्रवर्तिन् संप्रजन्य के साथ प्रवेश करता है किन्तु संप्रजन्य के साथ वहाँ अवस्थान नहीं करता मोर न संप्रजन्य के साथ वहाँ से निष्क्रमण करता है। प्रत्येक अवस्वान करता है किन्तु संप्रजन्य के साथ निष्क्रमण नहीं करता। वुद्ध नित्य संप्रजन्यसहित होते हैं। प्रथम का पुण्यसंभार महान् है; वह कर्म से उज्ज्वल, देदीप्यमान है। द्वितीय में श्रुतमयी, चिन्तामयी, भावनामयी प्रजा होती हैं। तृतीय में पुण्य, श्रुतमयी बादि प्रना : कर्म और प्रज्ञा । चतुर्थ गर्भावक्रान्ति वह है जो संप्रजन्य के विना होती है। यह उन सत्त्वों के लिये है जिनके महान् कर्म नहीं हैं और न जिनकी प्रज्ञा महती है । तौर्थिक जो आत्मा में प्रतिपन्न है कहते हैं कि "यदि आप यह स्वीकार करते हैं कि सत्त्व अन्य लोक को जाता है तो जिस आत्मा में मैं प्रतिपन्न हूँ वह सिद्ध होता है।" इस वाद का प्रतिपेच करने के लिये आचार्य कहते हैं: नात्मास्ति स्कन्वसानं तु क्लेशकार्माभिसंस्कृतम् । अन्तराभवसन्तत्या कुक्षिमेति प्रदीपवत् ॥१८॥ १८ ए. मात्मा का अस्तित्व नहीं है।' जिस आत्मा में आप प्रतिपन्न है, जिसे आप एक द्रव्य मानते हैं, जो एक भव के स्कन्धों [५७] का परित्याग कर अन्य भव के स्कन्धों का ग्रहण करता है, जो अन्तरात्मा, पुरुष है, उस बात्मा का अस्तित्व नहीं है । भगवत् ने वास्तव में कहा है कि "कर्म है, फल है, किन्तु कोई कारक नहीं है जो धर्मों के संकेत अर्थात् हेतुफल-सम्बन्ध-व्यवस्था से पृथक् इन स्कन्धों का परित्याग और उन स्कन्वों का ग्रहण करता है । यह संकेत क्या है ? अर्थात् इसके होने पर वह होता है; इसकी उत्पत्ति से उसकी उत्पत्ति होती है। प्रतीत्यसमुत्पाद" (५.पृ. ५७, ९. पृ. २६०) (तत्रायं धर्मसंकेतो यद्....) तीथिक पूछता है कि क्या एक प्रकार का आत्मा है जिसका प्रतिपेव आप नहीं करते? १८.ए-डी. कर्म और क्लेश से अभिसंस्कृत स्कन्धमात्र अन्तराभव-सन्तति के द्वारा कुक्षि में प्रवेश करता है। दृष्टान्त : प्रदीप। हम प्रज्ञप्तिसत् आत्मा का जो स्कन्वों की संनामात्र है निषेध नहीं करते । किन्तु यह विचार दूर है कि स्कन्ध परलोक में गमन करते हैं। यह क्षणिक है, यह संसरण में हम से अति ३ ४ मर्थात् सांस्य और वैशेषिका नात्मास्ति । अध्याय ९, पुद्गलप्रतिपेचप्रकरण, पृ० २५९ देखिये । कारिफा १८ और १९ बोधिचर्यावतारपंजिका, ९.१५, ७३ में उद्धृत हैं। 'स्कन्धमानं तु कर्मक्लेशाभिसंस्कृतम् । च्या २८३.८] अन्तराभवतन्तत्या कुक्षिमेति प्रदीपवत् ।।