पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३१३

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश 7

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1 उस समय जब यह गर्भ, यह शल्य परिपक्व होता है तो कुक्षि में वायु समुत्थित होती हैं जो कर्म-विपाक से उत्पन्न होती हैं। यह वायु गर्भ का उत्पत्ति-द्वार की ओर संचालन करती [५९] हैं : इसका संचालन कठिन है क्योंकि वहाँ बहु अनुचि एकत्र रहती है । कभी माता के आहार के प्रतिकूल प्रत्ययों के कारण या कर्म के कारण गर्भ का निरोध होता है। सब एक कुशल स्त्री अपने हाथों को सब प्रकार की ओषधियों से अभिषिक्त कर एक तीक्ष्ण शस्त्र ले कर उनको योनि में प्रवेश करती है। योनिस्थान वर्च:कूप के समान है; वहाँ उग्र दुर्गन्ध और अन्धकार होता है; वह मल का पल्बल है। शुक्र, शोणित, लसीका आदि मल से वह क्लिन, विक्लिन्न होता है। वह स्त्री उस गर्भ के अंग-प्रत्यंग का छेद कर उसे बाहर आकृष्ट करती है और गर्भ-सन्तान अपरपर्याय- वेदनीय (४.५० वी) कर्मों के योग से न मालूम कहाँ जाता है। अथवा गर्भोत्पत्ति सुखकर होती है। माता और परिचारक अचिरोत्पन्न वालक को हाथों में लेते हैं। इनके हाथ का संस्पर्श इस काय के लिये, जो तरुण व्रण के तुल्य है, शस्त्र और क्षार का सा प्रतीत होता है । वह बालक को स्नान कराते हैं : उसका आहार दुग्ध और नवनीत होता है; पश्चात् उसे कवडीकार आहार देते हैं । इस प्रकार उसकी वृद्धि होती है। इस वृद्धि के कारण इन्द्रियों का परिपाक होता है और क्लेशों का समुदाचार होता है। इससे कर्म का उत्पाद होता है । और जब काय का विनाश होता है तब पूर्ववत् कर्म-क्लेशवश सन्तान अन्तराभव द्वारा अन्य भव को गमन करता है। १९ डी. इस प्रकार भवचक्र अनादि है।

२ 1 1 जब इन्द्रियों के अधिष्ठान स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होते हैं।)----पूज-फुआंग। और फा-पाभो हीनयान के टीकाकारों से सहमत हैं और कहते हैं कि केश, रोम, नख आदि यावत् इन्द्रिय-व्यंजनों को संपूर्णता पाँचवी अवस्था है। किन्तु साम्मितीयों के अनुसार केशादि की छठी अवस्था है। बुद्धिस्ट कास्मोलाजी पृ.३० में हमने तिम्वती संस्करण का अक्षरार्थ देने की चेष्टा की है। यहां हम इस वर्णन का सारांश मात्र देते हैं। व्याख्या में कुछ अंश मिलते हैं : तस्मिन् वर्चः कूप इद कायनाडीव्रण उग्रदुर्गन्यायकारमल- पत्वले सततं कर्तव्यप्रतिक्रिये शुक्रशोणितलसोकामलसंक्लिनविक्लिनक्वथितपिच्छिले पाणी संप्रवेश्याङ्गप्रत्यङ्ग निहत्य व्याहरति । व्या २८३.१८] [व्याख्या का पा० 'प्रत्याहरति' है] तरुणत्रणायमानास्मानं वालक शस्त्रक्षाराप्रमाणसंस्पर्शाभ्यां पाणिभ्यां परिगृह्य स्नापयन्ति । [ध्या २८३.२६] मज्झिम, १.२६६ का वर्णन कम अतिरंजित है: .....जब वह उत्पन्न होता है तब माता अपने रक्त से उसका पोषण करती है क्योंकि हे भिक्षुओ ! विनय के अनुसार माता का दुग्ध रक्त है. तस्य वृद्धेरन्दयात् [व्या २८३ . २९]-मझिम, १.२६६ से तुलना कीजिये : ...बुद्धिमन्वाय परिपाकमन्वाय। इत्यनादिभवचक्रकम् ॥ साएकी; को टिप्पणी : आचार्य महीशासकों का खण्डन करते हैं जो मानते हैं कि आदि है, एक नित्य हेतु है, अहेतुक कार्य हैं। ऊपर ; १०, टिप्पणी २३ १ 1 1 1 R 1 i 1 1