पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश यह विभक्त हैं अविद्या और संस्कार अतीत में, पूर्व भव में, जाति और जरामरण अपर भव में, शेष आठ अंग प्रत्युत्पन्न भव में । हमारा यह विचार नहीं है कि मध्य के आठ अंग सव सत्त्वों के प्रत्युत्पन्न भव में सदा पाये जाते हैं। यहां परिपूरिन्' आश्रय से अभिप्राय है जो सव अंगभूत अवस्थाओं से हो कर जाता है। जिनका अकालमरण होता है [यथा गर्भावस्था में] वह सत्तव 'परिपूरिन्' नहीं हैं । इसी प्रकार रूपावचर और आरू: [६२] प्यावचर सत्त्व भी 'परिपूरिन्' नहीं हैं। यह निश्चय है कि जिस सूत्र में आठ अंग परिगणित हैं उसकी अभिसन्वि कामावचर सत्त्वों से है : महानिदानपर्यायसूत्र में उक्त है कि "हे आनन्द ! यदि विज्ञान माता की कुक्षि में अवक्रमण न करे....." (दीघ , २.६३) हम प्रतीत्यसमुत्पाद को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं : पूर्वान्त (अतीत भव) (१-२) अपने फल के साथ (३-७); अपरान्त (अनागत भव) के हेतु (८-१०) अपरान्त (अनागत भव) (११-१२) के साथ । प्रतीत्यसमुत्पाद की इस कल्पना में जो विविध अंग है हम उनका वर्णन करते हैं। पूर्वक्लेशदशाऽविद्या संस्काराः पूर्वकर्मणः । सन्धिस्कन्वास्तु विज्ञानं नामरूपमतः परम् ॥२१॥ विनेयजन का भी विचार करते हैं.. अथवा सूत्र अनीतार्थ (कोश, ९. पृ. २४६ से तुलना कीजिये) है। शास्त्र नीतार्थ हैं। सूत्र केवल सत्त्वाख्य का विचार करते हैं। शास्त्र सत्त्व और असत्त्व दोनों का विचार करते हैं. (नीचे पृ. ६७)। । विभाषा, २३, १७--कुछ कहते हैं कि “इस सूत्र को अभिसन्धि केवल कामघातु से और औपपादुक उत्पत्ति को वजित कर अन्य तीन प्रकार की उत्पत्ति से है और इसलिये यह अदोष है।" यह कहना आवश्यक है कि इस सूत्र की अभिसन्धि तीन धातु और चार उपपत्ति से है। यद्यपि उपपादुक जन्मकाल में सकल इन्द्रियों से समन्वागत होते हैं तथापि यह इन्द्रियाँ तीक्ष्ण नहीं होती। पश्चात् क्रमशः काल पाकर इन्द्रियाँ तीक्ष्ण होती हैं। जब तक वह तीक्ष्ण नहीं होती प्रयम क्षण विज्ञानांग है, द्वितीयादिक्षण नामरूपांग है । जव वह तीक्ष्ण होती है तब यह षडायतनांग है । इस प्रकार सूत्र में अपूर्ण होने का दोष नहीं है । [इसका अभिप्राय उपपादुकों से भी है जो मादि से सकलेन्द्रिय होते हैं, कोश, २.१४, कथावत्यु, १४.२] पू-कुआंग कहते हैं : वसुबन्धु का शास्त्र विभाषा के विनिश्चयों को (भा-सा पिङ्-लिआ ) प्रमाण नहीं मानता। वह विभाषा के प्रथम आचार्यों के अर्थ का अनुसरण करता है। विभाषा, २४, ७- कामयातु में वारह अंगनामरूप को वजित कर शेष ग्यारह अंग रूपधातु में; नामरूप और षडायतन को वर्जित कर शेष दस अंग आरूप्यवासु में। किन्तु इस सिद्धान्त से जो कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं उनको हम देखते हैं क्योंकि "पडायतन विज्ञानप्रत्ययवश होता है," "स्पर्श विज्ञानप्रत्ययवश होता है]" विभाषा का विनिश्चय है (अक्षरार्थः पिङ्-किमा कहती है) कि "यह कहना चाहिये कि तीन धातुओं में बारह अंग होते हैं। ए. विना विभाषा को देखे मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पिड्-किआ से अर्थ उस दर्शन- समूह से है जिसके मतों को विभाषा ने उपनिवद्ध किया और जिसके सम्बन्ध में विविध आचार्यों के नतों पर अपना आलोचनात्मक विनिश्चय दिया। साएको का कहना है कि अमुक अमुक विषय पर विभाषा विभिन्न मतों को गिनाती है। वह कहते हैं कि कोई पिङ-किया नहीं है। दूसरों के अनुसार चार पिङ्-किया है। पृ.४९, टिप्पणी ४ वेखिये । २०