पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३१८

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३०८ अभिपमकोश भोगों की पर्येष्टि में कृत और उपचित कर्म पौन विक है । जिस अवस्था में पुद्गल कर्म करता है वह 'भव' है। २४ सी. जाति पुनः प्रतिसन्धि है। मरण के अनन्तर प्रतिसन्धि-काल के पाँच स्कन्ध 'जाति' हैं । प्रत्युत्पन्न भव की समीक्षा में जिस 'अंग' को 'विज्ञान' का नाम देते हैं उसे अनागत भव की समीक्षा में 'जाति' की [६५] संज्ञा मिलती है। २४ डी. वेदनांग तक जरामरण है। 'वेदना' को यहाँ 'विद्' कहा है । 'जाति' से 'वेदना' तक जरामरण है । प्रत्युत्पन्न भव के चार अंग-नामरूप, षडायतन, स्पर्श और वेदना-अनागत-भव के सम्बन्ध में जरामरण कहलाते हैं। यह द्वादशात्मक सन्तति का बारहवाँ अंग है। किन्तु यह कहा गया है कि प्रतीत्यसमुत्पाद चतुर्विध है : क्षणिक या क्षण का, प्राकर्षिक { : अनेक क्षणिक-प्रबन्धयुक्त या अनेक जन्मिक), साम्बन्धिक (हेतुफलसंबन्धयुक्त), आवस्थिक (वारह पंचस्कन्धिक अवस्था)।' प्रतीत्यसमुत्पाद क्षणिक कैसे है ? जिस क्षण में क्लेशपर्यवस्थित पुद्गल प्राणातिपात करता है उस क्षण में १२ अंग परिपूर्ण होते हैं : १. उसका मोह अविद्या है ; २. उसकी चेतना संस्कार है; ३ . उसका आलम्बन-विशेष का स्पष्ट विज्ञान विज्ञान है;४. विज्ञान सहभू चार स्कन्ध नामरूप है ; ५ नामरूप में व्यवस्थित इन्द्रिय षडायतन है; ६. षडायतन का अभिनिपात स्पर्श है; ७. स्पर्श का अनुभव [६६] वेदना है, ८.राग तृष्णा है; ९.तृष्णासंप्रयुक्त पर्यवस्थान उपादान हैं; १०. [वेदना या तृष्णा से] समुत्थित काय या वाक्-कर्म भव है; ११. इन सब धर्मों का उन्मज्जन, उत्पाद जाति है। १२. इनका परिपाक जरा है, इनका भंग मरण है।' विभाषा, २३, ८--प्रतीत्यसमुत्पाद चार प्रकार का है : क्षणिक, सांबन्धिक, आवस्थिक, प्राषिक। कोई कहता है कि यह आवस्थिक और प्राकर्षिक है। दूसरे कहते हैं कि यह क्षणिक और सांबधिक है। व्याख्या का क्रम भिन्न है : ए. क्षणिकः क्षगे भवः क्षणोऽस्यास्तीति क्षणिकः।।बी. प्रकर्षण दीव्यति चरति वा प्राषिकः । प्रवन्धयुक्त इत्यर्थः । और नीचे--स एवावस्थिकः प्रकर्षयोगात् प्राकर्षिक: [व्या २८६.२] । अनेकक्षणिकत्वाद् अनेकजन्मिकत्वाच्च [व्या २८६ . २२] । सौ. सांबन्विकः । हेतुफलसंवन्धयुक्त इत्यर्थः, डी. आवस्थिकः । द्वादश पञ्च- स्कस्विका अवस्था इत्यर्थः। व्या २८६ . ] शुआन्-चाड संशोधन करते हैं: "तीन स्कन्ध ।" नामख्यव्यवस्थितानि इन्द्रियाणि च्या २८६.६]। हम कह सकते हैं कि इन्द्रिय आश्रयत्वेन 'नामन्' में व्यवस्थित हैं। हम कह सकते हैं कि उनकी वृत्ति नामरूप में प्रतिबद्ध है। षडायतनाभिनिपातः स्पर्शः [व्या २८६.८]-चक्षु का अभिनिपातं उसको रूप में प्रवृत्ति है । अहो आदि पर्यवस्थान हैं, ५.४७ । फलाक्षेपसामोपधातः पूर्वक्षणापेक्षया वा [व्या २८६.१३] तत्क्षणविनाशः। भङ्गाभिमुख्य भङ्ग इत्यपरे व्या २८६.१४] १ २ ३ १