पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३१९

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३०९ पुनः यह कहा है कि प्रतीत्यसमुत्पाद क्षणिक और सांवन्धिक है। प्रकरणों में यह कहा है : "प्रतीत्यसमुत्पाद क्या है ?--सब संस्कृत धर्म । प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्म क्या है ? सब संस्कृत धर्म।" आवस्थिक प्रतीत्यसमुत्पाद बारह पंचस्कन्धिक अवस्था है। तीन निरन्तर जन्मों से संबद्ध होने से यह प्राकर्षिक भी है। इस द्वादशांगसूत्र में भगवत् का अभिप्राय इन चार में से किस प्रकार के प्रतीत्यसमुत्पाद की देशना देने का है ? आवस्थिकः किलष्टोऽयं प्राधान्यात्वङ्गकीर्तनम् । पूर्वापरान्तमध्येषु संमोहविनिवृत्तये ॥२५॥ २५ ए. सिद्धान्त के अनुसार आवस्थिक प्रतीत्यसमुत्पाद इष्ट है। सिद्धान्त के अनुसार केवल आवस्थिक प्रतीत्यसमुत्पाद का अवधारण करने से भगवत् बारह अंग का निर्देश करते हैं। किन्तु यदि प्रत्येक अंग पंच-स्कन्ध का समुदायलक्षण है तो इन अविद्या आदि प्रज्ञप्तियों का क्यों व्यवहार होता है ? २५ वी. अंगों का नाम-कीर्तन उस धर्म के नाम से होता है जिसका वहाँ प्राधान्य है। [६७] जिस अवस्था में अविद्या का प्राधान्य है वह अविद्या कहलाती है । अन्य अंगों की भी इसी प्रकार योजना होनी चाहिये । यद्यपि सब अंगों का एक ही स्वभाव है तथापि इस प्रकार विवेचन करने में कोई दोप नहीं है। सूत्र प्रतीत्यसमुत्पाद का लक्षण बारह अंगों की सन्तति के रूप में क्यों देता है जब कि प्रकरण कहते हैं कि "प्रतीत्यसमुत्पाद क्या है ? ----सब संस्कृत धर्म ?" क्योंकि सूत्र की देशना आभि- प्रायिक है जब कि अभिधर्म में लक्षणों की देशना है। एक ओर प्रतीत्यसमुत्पाद आवस्थिक, प्राकर्षिक, सत्त्वाख्य है। दूसरी ओर वह क्षणिक, सांवन्विक, सत्त्वासत्त्वाख्य है। सूत्र की देशना सत्त्वाख्य प्रतीत्यसमुत्पाद को ही क्यों है ? . शुआन चाड और परमार्थ इस स्थान में प्रकरण के इस उद्धरण को नहीं देते। व्याख्या के अनुसार "प्रकरणेषु" ----व्या २८६ . १५]--नीचे पृ० ६७, ७३ देखिये। ५ आवस्थिकः किलेष्टोऽयम् । संघभत्र:--अभिधर्माचार्य कहते हैं कि 'अवस्थाओं का विचार कर बुद्ध प्रतीत्यसमुत्पाद की देशना करते हैं। सौत्रान्तिक ( = वसुवन्यु) इसको नहीं मानते और इसीलिये वह अपनी कारिका में किल' शब्द का व्यवहार करते हैं। हम इसका अनुवाद 'सिद्धान्त के अनुसार देते हैं। ] प्राधान्यात् त्वङ्गकोतनम्। साएको मध्यम, २७, १ का उल्लेख करते हैं। सूत्र में प्रतीत्यसमुत्पाद को देशना मानि- प्रायिक है, अभिधर्म में लाक्षणिक है। ऊपर पू० ६०, टि. १ व्या २८६.२४] +