पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३२

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प्रथम कोशस्थांन : धातुनिर्देश १७ तृतीय प्रकार : यथा वाग्विज्ञप्ति-शब्द (४.३ डी) चतुर्थ प्रकार : अन्य शब्द २. अन्य आचार्यों के अनुसार शब्द प्रथम दो प्रकार का युगपत् हो सकता है यथा हाथ और तम्बूरे के संयोग से उत्पादित शब्द । किन्तु वैभापिक (विभाषा, १२७, ८) यह नहीं मानते कि एक वर्ग-परमाणु का हेतु महाभूत के दो भूतचतुष्क होते हैं । अतः यह नहीं स्वीकार किया जा सकता कि एक शब्द-परमाणु हाय और तम्यूरे के महाभूत-चतुष्क-द्वय के उपादान से वर्तमान होता है। १० बी-सो. रस छ: प्रकार का है। मधुर, आम्ल, लवण, कटु, कपाय और तिक्त । [१८] १० सी. गन्ध चतुर्विय है ।' क्योंकि सुगन्ध और दुर्गन्ध सम या विपम हैं [व्या २७. १४] (सम, विपम अनुत्कट, उत्कट)। प्रकरणशास्त्र (फ़ोलियो १३वी १) में गन्च त्रिविध है : सुगन्ध, दुर्गन्व, समगन्ध । १० डी. स्प्रष्टव्य ११ प्रकार का है। १. ११ द्रव्य स्पष्टव्य हैं : महाभूतचतुष्क, श्लक्ष्णत्व, कर्कश, गुरुत्व, लघुत्व, शीत, जिघत्सा और पिपासा । २. भूत-निर्देश नीचे (१. १२) होगा। श्लक्ष्णत्व स्निग्यता है । कर्कश कठोरता है । गुरुत्व वह है जिसके योग से काय तोलनाहं (१.३६) होते हैं। लघुत्व इसका विपर्यय है । शीत वह धर्म है जो उष्म की अभिलाषा उत्पन्न करता है । जिवत्ता (बुभुक्षा) वह धर्म है जो आहार की इच्छा उत्पन्न करता है। पिपापा वह धर्म है जो पीने की इच्छा उत्पन्न करता है । वस्तुतः जिघत्सा और पिपासा शब्द से वह स्प्रष्टव्य प्रज्ञप्त होता है जो जिघत्सा और पिपासा का उत्पाद करता है। कारण में कार्य के उपचार से ऐसा होता है । यथा कहते हैं कि "बुद्धों का उत्पाद सुख है; सद्धर्म की देशना सुख है ; संघ की सामग्री सुख समग्रों का तप सुख है"13 (मिद और मूर्छन प्टव्य में अन्तर्भूत हैं, सिद्धि, ४१०) ३. रूपधातु में जिवत्सा और पिपासा का अभाव है किन्तु अन्य स्पष्टव्य वहाँ हैं । यह सत्य है कि ल्पावचर देवों के वस्त्र का अलग अलग तोल नहीं होता किन्तु संत्रित होने पर उनका तोल 3 रसः । पोदा [व्याख्या २७.१०] धर्मस्कन्ध, ९, ९ के अनुसार रस १४ प्रकार का है। धम्मसंगणि, ६२९ से तुलना कीजिए। १ [गन्वश्चतुर्थी धम्मसंगणि, ६२५ २ स्पष्टव्यमेकादशात्मिकम्] विभाषा, १२७, १, धम्मसंगणि, ६४८--१.३५ देखिए। धम्मपद, १९४; उदानवर्ग, ३०, २३-वृद्धोत्पाद सुखहेतु है, सुख नहीं है। १.३० बी देखिए। 3