पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३२०

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अभिधर्मकोश २५ सी-डी. पूर्वान्त, अपरान्त और मध्य के प्रति संमोह की विनिवृत्ति के लिये। और इसी हेतु से सूत्र विकाण्ड में प्रतीत्यसमुत्पाद की देशना देता है। पूर्वान्त का संमोह-जब कोई पूछता है कि "क्या मैं अतीत अध्व में था? क्या में नहीं था? कैसे और कब मैं था?"- '- अपरान्त का संमोह : "क्या मैं अनागत अध्व में हूंगा? -~-मध्य का संमोह : "यह क्या है ? यह कैसे है ? हम कौन हैं ? हम क्या होंगे ?" [६८] यह विविध संमोह अविद्या. जरामरण के यथाक्रम उपदेश से विनष्ट होता है। क्योंकि सूत्र में उक्त है कि "हे भिक्षुभो ! जो कोई प्रज्ञा से प्रतीत्यसमुत्पाद और प्रतीत्यसमु- त्पन्न धर्मों को जानता है वह पूर्वान्त की ओर प्रतिधावित नहीं होता और यह प्रश्न नहीं करता कि क्या वह अतीत अध्व में था.... दूसरों के अनुसार मध्य काण्ड के अन्तिम तीन अंगों की-तृष्णा, उपादान, भव की शिक्षा अनागत संमोह की विनिवृत्ति के लिये है क्योंकि यह अनागत भव के यह द्वादशांग प्रतीत्यसमुत्पाद त्रिविध है-क्लेश, कर्म और वस्तु । यह द्विविध है-हेतु और फल। फ्लेशास्त्रीणि वयं कर्म सप्त वस्तु फलं तथा। फलहेत्वभिसंक्षेपो द्वयोर्मध्वानुमानतः ॥२६॥ २६ ए-बी. तीन अंग क्लेश हैं, दो कर्म हैं; सात वस्तु और फल हैं।' अविद्या, तृष्णा और उपादान क्लेशस्वभाव है। संस्कार और भव कर्मस्वभाव हैं। विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, जाति और जरामरण वस्तु हैं । इनको वस्तु इसलिये कहते हैं पूर्वापरान्तमध्येषु संमोहविनिवृत्तये॥ [च्या २८६ . ३०] संयुत्त, २.२६; मज्झिम, १.८, १११; विसुद्धिमग्ग, ५९९; संयुक्त, १२, १९, शालिस्तम्ब, पृ.८८ [थियरी आव ट्वेल्व काजेज) मध्यमकवृत्ति, ५९३ में उद्धृत--पाठान्तर हैं जिनमें से हम तुतीय परिच्छेद के पाठ देंगे। व्याख्या किंस्विदिदम् इत्यात्मब्रव्यमन्वेषते। कथंस्विदिदम् इति केन प्रकारेण कया युक्त्येति । के सन्त इति के वयमिदानीं विद्यमानाः। के भविष्याम इत्येवं व्यावधारयति । [व्या २८७.२] मध्यमकवृत्ति में शालिस्तम्ब : किं न्विदम् । कथं विदम्। के सन्तः। के भविष्यामः। अयं सत्त्वः कुत आगतः। स इतश्च्युतः कुन गमिष्यति । मझिम, १.८ और विसुद्धिमग्ग, ५९९ (वारेन, २४३) : अहं नु खोऽस्मि । नोनु खोऽस्मि । किं नु खोऽस्मि कथं नु खोऽस्मि । अयं न खो सत्तो कुतो आगतो। सो । कुहिंगामी भविस्सति [विसुद्धि का पाठ--अहं नु खोऽस्मि......] यह सूत्र तृष्णाविचरितसूत्र से संबन्धित है, कोश, ७.पू. ३६ 'संघभन इस मत का प्रतिषेध करते हैं। क्लेशास्त्रीणि वयं कर्म सप्त यस्तु फलं तथा। यह तीन 'वम' या वट्ट है-विसुद्धिमग्ग, ५८१ : तिवट्ट [इदं भवचक्या अनवट्टितं भमति । अन्य सब ग्रन्थों में तृतीय वर्म का लक्षण केवल विपाक [या फल] है। थियरी भाव ट्वेल्व काजेश, ३४ देखिये। १ २ 3