पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३१२ अभिधर्मकोश व्याख्यान सम्पूर्ण है । भगवत् 'अंगों' के इस नय को उपदर्शित करना चाहते थे यह बात सूत्र के इस अन्तिम वाक्य से सिद्ध है : “इस प्रकार केवल महान् दुःख-स्कन्ध का समुदय होता है।" किन्तु एक दूसरा निरूपण है : 'ए. सूत्रान्तर में कहा है कि अविद्या का हेतु 'अयोनिशो. मनसिकार' है और एक और सूत्र में कहा है कि अयोनिशोमनसिकार का हेतु अविद्या है। अतः अविद्या निर्हेतुक नहीं है। अनवस्थादोष का परिहार होता है । बी. किन्तु क्या आप कहेंगे कि इस प्रतीत्यसमुत्पादसूत्र में जिसका हम विचार कर रहे हैं अयोनिशोमनसिकार का उल्लेख नहीं है ? निस्संदेह; किन्तु यह उपादान के अन्तर्भूत है । अतः यह इस प्रकार उक्त होता है।' यह निर्देश निःसार है । अयोनिशोमनसिकार का उपादान में कैसे अन्तर्भाव है ? [७१] यदि संप्रयोगतः इसका अन्तर्भाव उपादान में इष्ट है तो अविद्या और तृष्णा का भी अन्त- भर्भाव प्राप्त होता है । मान लीजिये कि यह उपादान के अन्तर्भूत है। इससे यह कैसे विज्ञापित होता है कि सूत्र उपादान का निर्देश कर यह कहना चाहता है कि अयोनिशोमनस्कार अविद्या का हेतु है ? दूसरे शब्दों में मैं चाहता हूँ कि अयोनिशोमनस्कार उपादान के अन्तर्भूत हो, किन्तु इससे यह नहीं विज्ञापित होता कि सूत्र को अधिकार है कि वह अविद्या के हेतुरूप से उसको अंगान्तर न कहे। वह अविद्या और तृष्णा को भी छोड़ सकता था क्योंकि तृष्णा और अविद्या भी उपादान के अन्तर्भूत हैं और इसलिये उनको पृथक् अंग निर्दिष्ट करने की आवश्यकता न थी। अब एक दूसरे आचार्य कहते हैं कि-एक सूत्र की देशना है कि अविद्या का हेतु अयोनिशोमन- ......... २ 1 मध्यम, ३४, ३--एवमस्य केवलस्य महतो दुःखस्कन्धस्य समुदयो भवति। व्या २८८.१५] टीकाकार कहते हैं : 'केवल' शब्द आत्मा और आत्मीय के अभाव को ज्ञापित करता है। 'महान्' शब्द आदि और अन्त के अभाव को सूचित करता है। •"दुःखस्कन्ध", क्योंकि यह सालव संस्कारों से उपचित्त है: “समुदय"क्योंकि यह हेतुप्रत्यय के संनिपात से उत्पादित है.. व्याख्या के अनुसार : "आचार्य मनोरथ का उपाध्याय स्थविर वसुदन्धु", [२८९. ६ पूज-कुआंग के अनुसार "वृद्ध वसुबन्धु एक सर्वास्तिवादी हैं जिनकी विप्रतिपत्ति है।" [वृद्ध वसुबन्धु के उपाध्याय मनोरथ पर, वार्स १.२११ । व्याख्या के अनुसार--सहेतुसप्रत्ययसनिदानसूत्र । अविद्या भिक्षवः सहेतुका सप्रत्यया सनिदानी। कश्च भिक्षवोऽविद्याया हेतुः कः प्रत्ययः कि निदानम् । अविद्याया भिक्षवोऽयोनिशोमनसिकारो हेतुः.....[व्याख्या का पाठ---मनस्कारो] [मा २८८.२५] मध्यमकवृत्ति, ४५२ में यही उद्धरण है। यह प्रतीत्यसमुत्पादसूत्र से उद्धृत किया गया है। संयुक्त, १३, २० (साएको की टिप्पणी) थियरी आव ट्वेल्व फाजेज, पृ.८; अंगुत्तर, ५.११३ (अविद्या के आहार पर); नेतिप्पकरण, ७९ (अविज्जा अविज्जायहेतु, अयोनिसोमनसिकारी पच्चयो)। नीचे पृ.७१, टि.३ देखिये। 'इह' अर्थात् इस प्रतीत्यसमुत्पादसूत्र में [व्या २८९. १], द्वादशांगसून ( साएकी ) -यथा संयुत, २.२५ । 'सोमान्तिक श्रीलाभ' [व्याख्या का पाठ--'श्रीलाते--२८९.२३]