पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३२४

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३१४ अभिधर्मकोश उत्तर यह है : अंगों का निर्देश अपरिपूर्ण नहीं है । वास्तव में सन्देह इस प्रश्न के जानने में है कि इहलोक परलोक से कैसे संबन्धित होता है, परलोक इहलोक से कैसे संबन्धित होता है। सूत्र को केवल इतना ही अर्थ विवक्षित है । इस अर्थ को पूर्व ही कहा है : “पूर्वान्त, अपरान्त और मध्य के संमोह की विनिवृत्ति के लिये" ( ३ . २५सी, पृ. ६७) । भगवद्वचन है कि "हे भिक्षुओ ! मैं तुमको प्रतीत्यसमुत्पाद और प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्मों की देशना दूंगा।” प्रतीत्यसमुत्पाद और इन धर्मो में क्या भेद है ? अभिधर्म के अनुसार कोई भेद नहीं है। क्योंकि जैसा हमने देखा है (पृ.६६) उभय १७३] का लक्षण एक ही है : “सब संस्कृत धर्म है।" एक दोष है ।--"सर्व संस्कृत धर्स" अर्थात् त्रैयध्विक धर्म । अनागत धर्म जो अनुत्पन्न हैं कैसे 'प्रतीत्यसमुत्पन्न' कहला सकते हैं ? -~-हम आपसे पूछते हैं कि अनागत धर्म जो 'अकृत' हैं कसे 'संस्कृत' कहलाते हैं। क्योंकि वह आभिसंस्कारिका चेतना से चेतित हैं। आभिसंस्कारिका वह है जो "विपाक का अभिसंस्करण करती है। किन्तु यदि ऐसा है तो अनागत अनास्रव धर्म (आर्य मार्ग के धर्म) कैसे संस्कृत होंगे? वह भी उनकी प्राप्ति के प्रति कुशल चेतना से चेतित होते हैं।' किन्तु निर्वाण में भी इसका प्रसंग होगा क्योंकि आर्य उसकी प्राप्ति के लिये प्रार्थी होता है। अतः हमारा कहना है कि यदि कोई अनागत धर्मों को प्रतीत्यसमुत्पन्न' कहता है, तो यह अतिदेश है। अनागत धर्म और अतीत तथा प्रत्युत्पन्न 'संस्कृत' धर्मों के एकजातीय होने से (तज्जातीयत्वात्) इसकी युक्तता कही जाती है। यथा यद्यपि इस समय अनागत रूप के लिये 'रूप्यते' शब्द का व्यवहार नहीं हो सकता तथापि वह 'रूप' कहलाता है क्योंकि वह रूप्यंमाग रूप की जाति का है। किन्तु प्रतीत्यसमुत्पाद और प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्मों में विशेष करने में सूत्र का क्या अभिप्राय है ? २ 1 ३ नापरिपूर्णो निर्देशः [च्या २९१.१३] कथं परलोकादिलोकः संबध्यते [च्या २९१.६] संयुत्त. २, २५ : पटिच्चसमुप्पादं वो भिक्खवे देसिस्सामि पटिच्चसमुप्पन्ने च धम्मे। प्रकरण, ६,९--यविकाः सर्वे संस्कृताधर्माःप्रतीत्यसमुत्पादः। त एव च प्रतीत्यसमुत्पन्नाः । [व्या २९१.१५] ऊपर पृष्ठ ६७ आभिसंस्कारिकया चेतनया चेतितत्वात् [च्या २९१.१८]-चेतना को आभिसंस्कारिका शब्द से विशेषित कर आचार्य सब चेतनाओं के स्वलक्षण को (१.१५ए) धोतित करते हैं क्योंकि विपाक का अभिसंस्करण करने से (विपाकाभिसंस्करणात)चेतना "आभिसंस्कारिका" है। अनागत धर्म इस चेतना से कि 'मैं देव हूँगा, में मनुष्य हूँगा, 'चतित होते हैं अर्थात् एक प्रणिधान ,एक आशय के विषय होते हैं (प्रणिहित)। इस प्रकार अनागत धर्म संस्कृत होते हैं: वह भाविनो संज्ञा से (भाविन्या संशया) ऐसा नहीं कहलाते। । तेऽपि चेतिताः कुशलया चेतनया प्राप्ति प्रति [व्या २९१. यह कुशलधर्मच्छन्द का विषय है, ५.१६,पृ.३६, ८.२०सी. कोश, १.१३, पृ.२४॥ २४] ४ ५