पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३२५

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश [७४] हेतुरत्र समुत्पादः समुत्पन्नं फलं मतम् । विद्याविपक्षो धर्मोऽन्योऽविद्याऽमित्रानृतादिवत् ॥२८॥ २८ ए-बी. समुत्पाद हेतु है, समुत्पन्न फल है।' जो अंग हेतु है वह प्रतीत्यसमुत्पाद है क्योंकि उससे उत्पाद होता है (समुत्पद्यतेस्मात्) । जो अंग फल है वह प्रतीत्यसमुत्पन्न है क्योंकि वह उत्पन्न होता है किन्तु यह प्रतीत्यसमुत्पाद भी है क्योंकि इससे समुत्पाद होता है । सब अंगों का हेतुफलभाव है । अतः वह एक ही काल में प्रतीत्यसमुत्पाद और प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं। ऐसा होने पर अव्यवस्थान नहीं होता क्योंकि एक अंग उस अंग के प्रति प्रतीत्यसमुत्पाद नहीं होता जिसके प्रति वह प्रतीत्यसमुत्पन्न है। यह भिन्न अंगों की अपेक्षा करते हैं, पितृपुत्रवत्-पुत्र की अपेक्षा पिता पिता है, पिता की अपेक्षा पुत्र पुत्र है; हेतुफलवत् ; पारापारवत्। किन्तु स्थविर पूर्णाश' कहते हैं : “जो प्रतीत्यसमुत्पाद है वह प्रतीत्यसमुत्पन्न नहीं हो सकता।' चार कोटि है : १. अनागत धर्म [जो प्रतीत्यसमुत्पाद हैं क्योंकि अनागत धर्मों के हेतु हैं, एप्य- धर्महेतु हैं [व्या २९२.८] और प्रतीत्यसमुत्पन्न नहीं है क्योंकि उत्पन्न नहीं हैं], २. अहंत् के चरम धर्म [जो केवल प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं), ३. तदन्य अतीत और प्रत्युत्पन्न धर्म [जो प्रतीत्य- समुत्पाद और प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं], ४. असंस्कृत धर्म, [जो न प्रतीत्यसमुत्पाद हैं और न प्रतीत्य- समुत्पन्न क्योंकि उनका फल नहीं होता और वह अनुत्पत्तिमत् हैं, २.५५ डी] । [७५] सौत्रान्तिक आलोचना करते हैं । क्या ['आवस्थिक प्रतीत्यसमुत्पाद' (पृ. ६६) से आरम्भ कर यावत् 'जो प्रतीत्यसमुत्पाद है वह प्रतीत्यसमुत्पन्न नहीं है' यह सव व्याख्यान'] यादृच्छिकी इष्टि हैं या सूत्रार्थ हैं ? आप व्यर्थ ही कहेंगे कि सूत्र का यह अर्ध है। आप आवस्थिक प्रतीत्यसमुत्पाद का उल्लेख करते हैं जिसके बारह अंग, बारह पंच-स्कन्धिक अवस्थाएं १ २ हेतुरत्र समुत्पादः समुत्पन्नः फलं मतम् । विभाषा, ३३,११--भदन्त वसुमित्र कहते हैं जो धर्म हेतु है वह प्रतीत्यसमुत्पाद धर्म है जो धर्म सहेतुक है वह प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्म है, जो धर्म उत्पत्ति है वह प्रतीत्यसमुत्पाद धर्म जो धर्म उत्पाद है जो धर्म कारक (?)है .. भदन्त कहते प्रवर्तक (कोश, ४.१० देखिये) प्रतीत्यसमुत्पादधर्म है, अनुवर्तक प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्म है। तिन्नती भाषान्तर के अनुसार स्थविर Bsam rdzogs ( इन्हें शोफ़ानर, तारानाथ, ४, टिप्पणी ६ सुभूति बताते हैं); शुमान चाड : माशा-पूर्ण"; परमार्थ ने संस्कृत रूप दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह परिच्छेद विभाषा, २३, ११ से असरसा लिया गया है। साएको इसे फ़ोलिओ १६ए में उदवृत्त करते हैं। स्पात् प्रतीत्यसमुत्पादो न प्रतीत्यसमुत्पन्न:- ग्याख्या के अनुसार । [ध्या २९२.१३] t