पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३२७

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश जो विज्ञानांग-जनक हों अर्थात् जो पुण्योपग, अपुण्योपग, या आनिज्योपग विज्ञान का उत्पाद करें।' एवमादि । अतः सूत्रार्थ (पृ. ७५, टिप्पणी २) का ग्रहण यथानिर्देश है ।' पूर्णाश की चतुष्कोटि को प्रथम कोटि का अनागत धर्म 'प्रतीत्यसमुत्पन्न नहीं है उस सूत्र के [७७] विरुद्ध है जिसके अनुसार जाति और जरामरण 'प्रतीत्यसमुत्पन्न' हैं : “प्रतीत्यसमुत्पन्न क्या है ? अविद्या.... जाति, जरामरण।" क्या कोई यह कहेगा कि जाति और जरामरणांग का अनागताध्व-व्यवस्थान इष्ट नहीं है ? यह प्रतीत्यसमुत्पाद की त्रिकाण्ड व्यवस्था का परि- त्याग है। निकायान्तरीय का मत है कि प्रतीत्यसमुत्पाद असंस्कृत है क्योंकि सूत्रवचन है कि "तथागतों का उत्पाद हो या तथागतों का उत्पाद न हो धर्मों की यह धर्मता स्थित है।" हम किस प्रकार इस वाद का निरूपण करते हैं इस पर इसकी सत्यता या अयथार्थता निर्भर करती है। यदि आप यह कहना चाहते हैं कि अविद्यादि प्रत्ययवश संस्कारादि का सदा उत्पाद होता है, अन्य प्रत्ययवश नहीं, अहेतुक नहीं और इस अर्थ में प्रतीत्यसमुत्पाद की स्थितता है, यह नित्य है, तो हमारा ऐकमत्य है। यदि आप यह कहना चाहते हैं कि प्रतीत्यसमुत्पाद नामक एक नित्य धर्म का सद्भाव है तो यह मत अग्राह्य है क्योंकि उत्पाद एक संस्कृत लक्षण (२.४५ सी) है । किन्तु आपके विकल्प में उत्पाद या प्रतीत्यसमुत्पाद एक नित्य भावान्तर है और इसलिी यह युक्त नहीं है कि वह अनित्य का, संस्कृत का लक्षण हो। पुनः उत्पाद का लक्षण अभूत्वाभाव है : असंस्कृत उत्पाद २ सत्यपि च पञ्चकन्यके संस्कारान भवन्ति •पुण्योपगं यावद् आनिज्योपगं विज्ञानं न भवति [व्या २९३.९] । जो विज्ञान यहाँ इष्ट है वह प्रतिसन्धि-विज्ञान है : 'उपग' का अर्थ 'तां तामुपपत्ति गच्छति' लेना चाहिये [व्या २९३.१२] १ यथानिर्देश एव सूत्रार्थः। यथा संकोतितानाम् एवाविद्यादीनां ग्रहणमित्यर्थः। व्या २९३.१४] 'निकायान्तरोया:--व्याख्या के अनुसार आर्य महीशासक; [व्या २९४.४] विभाषा, २३, ७ के अनुसार विभज्यवादिन्; समयभेद के अनुसार, महासांधिका यो-ग-लं की के अनुसार महासांधिक और महीशासक। कथावत्यु, ६.२ (११.७, २१.७); निर्वाण १९२५, पृ.१८५ । संयुक्त, १२, १९--उत्पादाद् वा तथागतानामनुत्पादाद्वा तथागतातां स्थितवेयं (धर्माणां) धर्मता [च्या २९३ . २६] ; संयुत्त, २.२५; विसुद्धिमरा, ५१८॥ इस वाक्य पर (जिसे व्याख्या शालिस्तम्बसूत्र के अनुसार उद्धृत करती है, फार्डियर, ३, ३६१) थियरी आव ट्वेल्व काजेज १११-११३ में एक टिप्पणी हैं। उत्पादस्य संस्कृतलक्षगत्वात् । न च नित्यं भावान्तरम् भनित्यस्य लक्षणं युज्यते। [च्या २९४.४] उत्पादश्च नामाभूत्वाभावलक्षणः (सौत्रान्तिकों का लक्षण, २.पृ. २२१ ) । परमार्थ इसका अनुवाद देते हैं। लोत्सव : उत्पादश्च नामोत्पत्तिः और व्याख्या कहती है कि धर्म को उत्पत्ति तादानीतंन होती है] [व्या २९४. १३] 1 कास्मालोजी, पृ.१६६, पंक्ति ५ में व्याख्या का पाठ है : कोऽस्योत्पादस्य अविद्यादिभिरभिसम्बन्धों ययोदनेन पाकस्य अभिसम्बन्धः कर्तक्रियालक्षणः । व्या २९४.१३] २ ३