पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३५

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३२५ तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश [८७] पृ. १८-१९) है। आत्मवाद आत्मभाव है, जिसके लिय वाद है कि यह आत्मा है।' एक दूसरे मत के अनुसार आत्मवाद आत्मदृष्टि और अस्मिमान है क्योंकि इन दो के कारण आत्मा का वाद होता है : यदि आगम 'वाद' शब्द का प्रयोग करता है तो इसका कारण यह है कि आत्मा असत् है । वास्तव में यह कहा है कि "वाल, अश्रुतवान्, पृथग्जन जो प्रज्ञप्ति में अनुपतित हैं 'आत्मा' और 'आत्मीय' के अस्तित्व को मानते हैं किन्तु आत्मा और आत्मीय असत् हैं।" काम, दृष्टि आदि का उपादान उनके प्रति छन्द और राग है । यथा भगवत् ने सर्व में कहा है : "उपादान क्या है ? यह छन्दराग है।"५ उपादानप्रत्ययवश 'उपचित' कर्म पुनर्भव का उत्पाद करता है : यह भव है। सूत्रवचन है : "हे आनन्द ! पौन विक कर्म, यह भव का स्वभाव है।" [८८] भवप्रत्ययवश, विज्ञानावक्रान्ति के योग से', अनागत जन्म होता है। यह जाति है। यह पंचस्कन्धिका है क्योंकि यह नामरूपस्वभाव है। २ ३ 'आत्मेति वादोऽस्मिन्नित्यात्मवादः व्या ३००.१२]--आत्मभाव, आत्मवाद पांच उपादान स्कन्ध हैं। यथा इस वचन से सिद्ध है: ये केचिच्छमणा वा ब्राह्मणा वा भात्मेति समनुपश्यन्तः समनुपश्यन्ति सर्वेत इमानेव पञ्चोपादानस्कन्धान् । (अध्याय ९, अनुवाद पृ० २५३; संयुत्त,३.४६) सौत्रान्तिक निकाय के विभिन्न' आचार्य (साएको) मध्यम,११,१९--बालो भिक्षवोऽश्रुतवान् पृथग्जनः प्रज्ञप्तिमनुपतितः चक्षुपा रूपाणि दृष्ट्वा. ..[व्या ३००.१६] (मध्यमकवृत्ति,१३७ और दि०) बाल' वह है जिसमें उपपत्तिलाभिका प्रज्ञा जो पूर्वाभ्यास की वासना से निर्जात है नहीं है। 'अश्रुतवान्' वह है जिसमें आगम से उत्पन्न (आगमजा) प्रज्ञा नहीं है। 'पृथग्जन' वह है जिसमें अधिगम अर्थात् सत्याभिसमय (६.२७) से उत्पन्न प्रज्ञा नहीं है। प्रज्ञप्तिमनुपतितः = यथा संज्ञा यथा च व्यवहारस्तथानुगतः--पालि में यह पद नहीं है।

  • "सर्व में", मैं समझता हूँ कि यह सर्ववर्ग है। किन्तु सव्ववग्ग, संयुत्त, ४.१५ में ऐसा कुछ

नहीं है]--परमार्थ "सव स्थानों में"। संयुक्त,२९,७; संयुत्त, ३.१००:"क्या उपादान और उपादानस्कन्ध एक है? यह न उपादानरक- न्य से अभिन्न हैं और न भिन्न । उनके लिये जो छन्दराग है वह उनके लिये उपादान है (अणि च यो तत्य छन्दरागो तं तत्थ उपादानं)"; ३. १६७ : रूप 'उपादानिय धम्म' है निर्यात उपादान का विषय जिससे उपादान समुत्थित होता है] । उसके लिये छन्दराग रूप के लिये उपादान है। [इसी प्रकार अन्य स्कन्धों के लिये] ; ४.८९, इसी वचन में स्कन्धों के स्थान में पडिन्द्रिय का आदेश कर। व्याख्या-~-अप्राप्तेषु विषयेषु प्रार्थना छन्दः, प्राप्तेषु रागः [व्या ३००.२०] सूत्र : पोन विकं कर्म] इदमत्र भवस्य । धोख्या : इदमत्र भवस्य स्वलक्षणं स्वभाव इत्यर्थः। [व्या ३००.२५] ६.३ में उद्धृत सूत्र ते तुलना कीजिये (अनुवाद पृ० १३१, टिप्पणी) : यत्किचिद् वेदितमिदमत्र दुःखस्य। विसुद्धि, ५७५ --कम निवारित है। विभंग, १३७, चुल्लनिद्देस, ४७१ 'विज्ञानावकान्तियोगेन-शुआन-चाद: विज्ञानसन्तान-अवकान्ति--बिम्जाप की अवपकः- न्ति, संयुत्त, २०९१ ।