पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३६

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अभिधर्मकोश जातिप्रत्ययवश जरामरण, यथा सूत्र में निर्दिष्ट है।' इस प्रकार केवल अर्थात् आत्मरहित--इस महान् दुःखस्कन्ध ( - समूह) का समुदय होता है (समुदेति)। यह महान् है क्योंकि इसका आदि-अन्त नहीं है। जो व्याख्यान पूर्व उक्त है कि बारह अंग बारह पंचस्कन्धिक अवस्था है वह वैभाषिकों का न्याय है (स एव तु वैभाषिकनयो यः पूर्वमुक्तः) [व्या ३००.३२] । अविद्या क्या है ? अ-विद्या, जो विद्या नहीं है (या न विद्या) व्या ३०१.२] 1 यह अर्थ असम्भव है क्योंकि चक्षुरादि में भी अविद्या का प्रसंग होगा। यदि यह विद्या का अभाव (विद्याया अभावः) [व्या ३०१. ३] है तो अविद्या द्रव्य नहीं है (४.पृ० ५) । इसलिये यह अर्थ अयुक्त है । अविद्या प्रत्यय है । इसलिए यह द्रव्य है। अतः २८ सी-डी. अविद्या एक अन्य धर्म है । यह विद्या का विपक्ष है, यथा अमित्र, अनृत आदि ।' [८९] अमित्र मित्र का विपक्ष है, अ-मित्र नहीं है अर्थात् मित्र से अन्य सब कुछ है ऐसा नहीं है, मित्र का अभाव नहीं है । ऋत या सत्य अवितथ है । अनृत सत्य-भाषण का प्रतिपक्ष है। इसी प्रकार अधर्म, अनर्थ, अकार्य धर्म, अर्थ, कार्य के प्रतिद्वन्द्व हैं। यह धर्मादि के प्रतिषेधमात्र नहीं हैं और न धर्मादि के अभाव हैं। इसी प्रकार अविद्या विद्या का प्रतिपक्ष है, धर्मान्तर है, द्रव्य है । सूत्र का उपदेश है कि अविद्या संस्कारों का प्रत्यय है। अतः सिद्ध होता है कि यह प्रतिषेधमात्र नहीं है । पुनः संयोजवादिवचनात् कुप्रज्ञा चेन दर्शनात् । दृष्टेस्तत्संप्रयुक्तत्वात् प्रजोपश्लेशदेशनात् ॥२९॥ २९ ए. क्योंकि इसे संयोजनादि कहा है। सूत्र अविद्या को एक पृथक् संयोजन, बन्धन, अनुशय, आस्रव, ओघ, योग मानते हैं। अतः अविद्या अभावमात्र नहीं हो सकती । यह विद्या से अन्य सब कुछ-~चक्षुरादि-नहीं हो सकती। किन्तु 'नन्' (अ) उपसर्ग कुत्सित के अर्थ में होता है । वुरी पत्नी, बुरे पुत्र को अकलत्र, अपुत्र कहते हैं। क्या हम यह नहीं कह सकते कि अविद्या कुत्सित विद्या अर्थात् कुत्सित प्रज्ञा है ? जरा कतमा। यत्तत् खालित्यं पालित्यम् . ....... मरणं कतमत् । या तेषां तेषां सत्वानां तस्मात् तस्माच्च्युतिश्च्यवनम् .....[व्या ३००.२८] मझिम, १.४९, दोय, २.३०५, विभंग, ९९, धम्मसंगणि, ६४४ से तुलना कीजिये। 'खालित्य' का समकक्ष 'खण्डिञ्च' है। खण्डिच्च का अर्थ इस प्रकार करते हैं : खण्डदन्त (रोज डे वेड्स-स्टोड), अंगुत्तर १.१३८ के अनुसार, विसुद्धि, ४४९ । विद्याविपक्षो धर्मोऽन्योऽविद्यामित्रानतादिवत् । 'अविद्या' शब्द में 'ना' उपसर्ग का अर्थ 'विरोव' है। नन् उपसर्गपूर्वक शब्द 'विपक्ष 'प्रतिद्वन्द्व सूचक होते हैं। यह प्रत्युदासमात्र का सूचक नहीं है। यह अभावमान का सूचक नहीं है। व्या ३०१.५] अन्य उराहरण : अयुक्ति, अव्यवहार, अमनुष्य [ध्या ३०१.७] । (अमनुष्य पर ४.पृ० १२६, १६४, २०५) । संयोजनादिवचनात्, ५०पू०७३ देखिये। .