पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय कोशस्थान लोकनिर्देश ३२७ २९ बी. अविद्या कुप्रज्ञा नहीं है क्योंकि कुप्रज्ञा दर्शन है । कुप्रज्ञा या क्लिष्ट प्रज्ञा निःसंदेह दृष्टि है (पांच कुदृष्टियों में से एक, ५.३) । किन्तु अविद्या निश्चय ही दृष्टि नहीं है क्योंकि अविद्या और दृष्टि दो पृथक् संयोजन हैं।' [९०] [सौत्रान्तिक]-अविद्या क्लिष्ट प्रशा होगी जो दृष्टिस्वभाव नहीं है [यथा राग- संप्रयुक्त प्रज्ञा] । यह असम्भव है, २९ सी. क्योंकि दृष्टि अविद्या से संप्रयुक्त है।' वास्तव में मोह जिसका लक्षण अविद्या है (अविद्यालक्षणो मोहः) [च्या ३०१.२१] क्लेशमहाभूमिकों में (२. २६ ए) पठित है । किन्तु सव क्लेशमहाभूमिक अन्योन्यसंप्रयुक्त है। अतः भविद्या का (मोह के नाम से) दृष्टि से (पंचविध कुदृष्टि से) संप्रयोग है जो प्रज्ञास्वभाव है। अतः अविद्या प्रज्ञा नहीं है क्योंकि दो प्रज्ञाद्रव्य का संप्रयोग नहीं हो सकता। २९ डी. क्योंकि अविद्या का लक्षण प्रज्ञा का उपक्लेश है। सूत्रोक्त है कि "रागोपक्लिष्ट चित्त का विमोक्ष नहीं होता; अविद्या से उपक्लिष्ट प्रज्ञा की विशुद्धि नहीं होती"। किन्तु प्रज्ञा प्रज्ञा से उपक्लिष्ट नहीं होती। यदि राग चित्त [९१]का उपक्लेशन है तो यह इसलिये हैं क्योंकि राग चित्त नहीं है। यदि अविद्या प्रज्ञा का उपक्लेश है तो यह इसलिये है क्योंकि अविद्या प्रज्ञा नहीं है। [सौत्रान्तिक का उत्तर]-कुशल प्रशा क्लिष्ट प्रज्ञा से व्यवकीर्यमाण हो सकती है जव कुशल और दिलष्ट प्रज्ञा के क्षण एक दूसरे के अनन्तर होते हैं। यथा जब कोई कहता है कि ४ कुप्रज्ञा पेन दर्शनात् । दर्शन पर ७.१ देखिये। हमने (ऊपर १०८४ में) देखा है कि वाल “धर्मों का संस्कृत लक्षण नहीं जानते (अप्रजानन्)"! इस वाक्य से अविद्या का लक्षण आकृष्ट हो सकता है। यह दृष्टि (आत्मदृष्टि = सस्कारदृष्टि) के पूर्व होती है। अविद्या का लक्षण, पृ०७५, ९२-९४ । दूसरी ओर अविधा मोह, २.२६ ए, पृ०१६१, ४.९ सी, ५.२० ए, पृ०.४१ । सत्य यह है कि यदि अविद्या अज्ञान मात्र, विद्या या सम्यक् प्रज्ञा का अभावमात्र नहीं है तो हम नहीं देखते कि कैसे यह क्लिष्ट प्रज्ञा नहीं है । यदि अविद्याधों के संस्कृत लक्षम के अज्ञान से अन्य वस्तु है, यदि यह पूर्वभवादि के ययाभूत स्वभाव के अज्ञान से अन्य वस्तु है तो यह उस किलर प्रज्ञा से व्यवकोण कसे नहीं होतो जो कुदृष्टिस्वभाव (मआत्मदृष्टि, आत्मपूर्वभव- दृष्टि आदि) है? और भी अधिक क्योंकि तर्कसम्मत आत्मदृष्टि के अतिरिक्त जिसकी उपपत्ति जोयिक करते हैं वह एक सहज 'आत्मदृष्टि' भी मानते हैं--यह द्रष्टव्य है कि तीन वृष्टियां मोह (मूढि), अकुशलमूलस्वभाव (५.२० ए) हैं। दृष्टस्तत् संप्रयुक्तत्वात्। [व्या ३०१, १९] प्रज्ञोपक्लेशवेशनात् ॥ संस, २६, ३० : रागोपक्लिष्टं चित्तं न विमुच्यते] अविद्योपक्लिष्टा प्रज्ञान विशष्यति । [व्या ३०१.२४] क्लिष्टचित के विमोक्ष पर, ६.७७ ए, अनुवाद पृ०२९९ अभिवाम (यया पटिसंभिदामग, १.२१) सीलविसति, चित्तविसद्धि, दिठिविसृषि से परिचित है। 7