पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३९

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३२९ यदि आप अविद्या को एक पृथक् धर्म मानते हैं और प्रज्ञा का एक प्रकार नहीं मानते तो आपको उसका लक्षण बताना चाहिये। अविद्या चतु:सत्य, त्रिरत्न, कर्म और फल का असंप्रख्यान है [संप्रख्यान, प्रज्ञा, जान, यह एक ही अर्थ है] असंप्रख्यान क्या है? यह अ-संप्रख्यान नहीं है, यह संप्रख्यान का अभाव नहीं है यथा अविद्या अ-विद्या या विद्या का अभाव नहीं है। अतः यह एक धर्मान्तर है। यह संप्रख्यान का प्रतिपक्ष है। वहुत अच्छा, किन्तु वही दोष है जो अविद्या में है। आप अविद्या की तरह असंप्रख्यान का स्वभाव नहीं बताते। प्रायः निर्देश स्वभावप्रभावित नहीं होते किन्तु कर्मप्रभावित होते हैं । यथा वक्षु [९३] का निर्देश इस प्रकार करते हैं: "जो रूपप्रसाद चक्षुर्विज्ञान का आश्रय है" क्योंकि इस अप्रत्यक्ष रूप को केवल अनुमान से जानते हैं (कोश ९, अनुवाद पृ० २३१) [इसी प्रकार अविद्या का स्वभाव उसके कर्म या कारित्र से जाना जाता है। यह कर्म विद्या का विपक्षत्व है। अतः यह विद्याविपक्ष धर्म है ।] [व्या ३०२.२८] भदन्त धर्मत्रात अविद्या का इन शब्दों में निर्देश करते हैं: अस्मीति सत्वमयना।' [व्या ३०२.३२] 'अस्मिमान' (५.१०) से भिन्न यह ‘मयना' क्या है ? भदन्त उत्तर देते हैं : जो इस सूत्र में उक्त है : “आत्मग्राह, यमनाह, अस्मि- १ ऊपर ३:पृ० ७५, संयुक्त, १२, २१; १८, ३: पूर्वान्तेऽज्ञानमपरान्ते ....मध्यान्ते [बुद्धधर्मसंचरत्नेष्व् .. • दुःखसमुदयनिरोधमार्गेण्वकुशलाकुशलाव्याकृतप्व आध्यात्मिके......वाहोज्ञानम् । यत् किञ्चिद् तत्र तत्राज्ञानम् तम आवरणम् . ...]


कोश, २. अनुवाद पृ० १६१ देखिये जहाँ 'अविद्या', 'अज्ञान' और 'अन्धकार' हैं। विभंग,

८५ : अजाणं अदस्सनं अनभिसमयो. • (पर्यायवाची शब्दों की लम्बी सूची में 'असंपरखान' नहीं है) रोज जैविड्स--स्टोड (अविज्जा) और थियरी आव ट्वेल्व काजेज ६-९ में अनेक हवाले मिलेंगे। १ इस शब्द का जो भी अर्थ क्यों न हो, हम चाहते हैं कि इसका पाठ तो ठीक हो । 'सत्वमन्यना' यह शोध इसका शोध नहीं है। लोत्सव का अनुवाद - अस्मीति-सत्वम्-अयन; और सूत्र के अनुवाद में सर्वायनानाम् है [किन्तु व्याख्या में मयना, मयनाना है और धातुपाठ में 'मी गती है : अतः सत्त्व-मयता] परमार्थ में केवल : मय है। शुआन्-चाङ = सत्त्व-आत्माश्रित-लय-ता। पू कुआंग : (मयता) = अहंमान संघभद्र 'मय' का अर्थ '[गति] गमन करते हैं। मय का भाव मयता है। सत्त्वमयता सत्त्वों का गमनभाव..... संयुक्त, ३४, १६ २