पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३४३

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश का पष्ठ आध्यात्मिक आयतन (मनस् का विषय) धर्मायतन से पृथग्भाव है। अतः छः स्पर्शकाय का पृथक् निर्देश यह नहीं सिद्ध करता कि स्पर्श चक्षु-रूप-विज्ञान, श्रोत्र-शब्द-विज्ञान आदि के संनिपात से धर्मान्तर है। सर्वास्तिवादिन् का उत्तर-धर्मायतन का पृथक् निर्देश युक्त है। इसमें दोप नहीं है क्योंकि वेदना और तृष्णा के व्यतिरिक्त संज्ञा और कई अन्य धर्म धर्मायतन में संगृहीत हैं। किन्तु क्योंकि आपके वाद में स्पर्शत्रिक-(इन्द्रिय-विषय-विज्ञान) संनिपातमात्र है और क्योंकि छः इन्द्रियार्थ- विज्ञान से अन्यत्र कोई त्रिक नहीं है जिसका संनिपात हो सकता है, इसलिये छ: इन्द्रियार्थ-विज्ञान के निर्देश के अनन्तर छः स्पर्शकायों का संनिपात के अर्थ में] ग्रहण अनर्थक होता है । यद्यपि सब इन्द्रियार्थविज्ञान के कारण नहीं हैं तथापि सव विज्ञान अवश्य इन्द्रियार्थ के कार्य हैं : [९८] [अतः यदि स्पर्श द्रव्य नहीं है तो छ: स्पर्शकाय के ग्रहण से पूर्व के वर्णन में कोई वृद्धि नहीं होती], क्योंकि आप यह सिद्ध नहीं कर सकते कि प्रथम दो (६ इन्द्रिय, ६ अर्थ) अविज्ञानक इन्द्रियार्थ हैं। सौत्रान्तिक भिदन्त श्रीलाभ] (व्या ३०५.७ का पाठ 'श्रीलात' है) का उत्तर-सर्व चक्षु-रूप चक्षुर्विज्ञान का कारण नहीं है । इसी प्रकार सव चक्षुर्विज्ञान चक्षु-रूप का कार्य नहीं है।' अतः जिन इन्द्रिय-विषय-विज्ञान का कार्यकारणभाव है उनका (येषां कारणकार्यभावः) स्पर्शभाव से निर्देश है (स्पर्शभावेन व्यवस्थितम्) [व्या ३०५.१०]। सूत्र में इन्हें “छ: स्पर्शकाय" कहा है। (पृ० १०३ देखिये)। दूसरी ओर सर्वास्तिवादी, जिसका मत है कि स्पर्श चक्षु-रूप-विज्ञान के संनिपात से धर्मान्तर है, इस सूत्र का क्या व्याख्यान करता है : "इन तीन धर्मों की संगति, सन्निपात, समवाय स्पर्श है" ? उसका इस सूत्र का यह पाठ नहीं है अथवा उसका कहना है कि कारण में कार्य का उपचार है। सूत्र में निर्दिष्ट संगतिशब्द से संगति के कार्य का अर्थ लेना चाहिये। किन्तु इस विवाद का बहुत विस्तार हो जायगा। आभिधार्मिकों का मत है कि स्पर्श एक धर्म है, द्रव्यान्तर है। ३० सी-डी. पाँच प्रतिघसंस्पर्श हैं; छठा अधिवचन है। ५ १ २ [४. पृ० १८ देखिये उनका पाठ इस प्रकार है : य एषां धर्माणां संगतेः सन्निपातात् समवायात् स स्पर्शः [च्या ३०५.१३]--उनका यह पाठ नहीं है : ........संगतिः संनिपातः समवायः...... ३ कारणे कार्योपचारः [व्या ३०५.१४]--यथा बुद्धानां सुख उत्पादः (धम्मपद, १९४), विसुद्धिमग्ग, वारेन, १९४ में, मध्यमकवृत्ति, ७० यह विवाद 'अतिवहुविस्तरप्रकारविसारिणी' है [व्या ३०५.१७। पञ्च प्रतिघसंस्पर्शाः षष्ठोऽधिवचनाह्वयः।। स्पर्श = संस्पर्श [व्या ३०५.२२] ४ ५