पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३४५

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तृतीय कोशस्यान लोकनिर्देश यह विद्या से अर्थात् अनास्रवप्रज्ञा से, अविद्या से अर्थात् क्लिष्ट अज्ञान से, नैवविद्यानाविद्या से अर्थात् कुशलसानद प्रज्ञा से अथवा अनिवृताव्याकृत प्रज्ञा से संप्रयुक्त स्पर्श हैं। सर्वक्लेशसंप्रयुक्त अविद्यासंस्पर्श का एक देश नित्य समुदाचारी है। इसके ग्रहण से दो स्पर्श होते हैं: ३१ सी. व्यापादस्पर्श और अनुनयस्पर्श एक व्यापाद से संप्रयुक्त है, दूसरा अनुनय से । स्पर्श त्रिविध है। ३१ डी. सुखवेद्यादि तीन स्पर्श । सुखवेद्य, दुःखवैद्य, असुखादुःखवेद्य ["जो सुख को वेदना में साबू है अथवा जहाँ सुख की वेदना होती है .. "]। इन स्पर्शो की यह संज्ञा इसलिये है क्योंकि इनका सुख, दुःख, असुखा- दुःख के लिये हितत्व है अर्थात् सुखवेदना के लिये हित ....... = सुखवेदनीय ........] [१०१] (पाणिनि, ५, १, १) अथवा क्योंकि 'वह वैदित होता है या हो सकता है (वेद्यते तन् वेदयितुं वा शक्यम्) (पाणिनि, ३, १, १६९)। "वह" वेदना है। जिस स्पर्श में वेद्य सुख (सुखं वेद्यम्) होता है वह स्पर्श सुखवेद्य कहलाता है 1 वास्तव में वहाँ एक सुखावेदना होती है। हमने चक्षुःसंस्पर्श आदि षड्विध स्पर्श का निर्देश किया है। तज्जाः षड् वेदनाः पञ्च कायिकी चैतसी परा। पुनश्चाष्टादशविधा सा मनोपविचारतः॥३२॥ ३२ ए. छः वेदना स्पर्श से उत्पन्न होती है।' यह चक्षुःसंस्पर्श आदि से उत्पन्न वेदना हैं। ३२ ए-बी. पाँत्र कायिकी वेदना हैं, एक चैतसिकी। २ ३ Y नयस्पर्श ; संप्रयोग की दृष्टि से : सुखवेदनीय आदि स्पर्श; आश्रय को दृष्टि से : चक्षु, श्रोत्रादि का स्पर्श अभीषणसमुवाचारिनु = नित्यसमुदाचारिन् [व्या ३०६.७] व्यापादानुनयस्पशी व्या ३०६.९] सुखवेद्यावयस्त्रयः ॥ व्या ३०६.९] स्पर्श वेदनीय कैसे है इसके लिये ४.४९, अनुवाद पृ०११३ देखिये। सुखवेद्य का व्याख्यान इस प्रकार है : सुखस्य वेदः सुखवेदः। सुखवेदे साघुः सुखवेद्यः । सुखं वा वेद्यम् अस्मिन्निति सुखवेद्यः। व्या ३०६.१०] सज्जाः षड् वेदनाः वेदना का व्याख्यान १.१४,२.२४ में हो चुका है । यहाँ आचार्य वेदमा के लक्षण का निर्देश नहीं करेंगे किन्नु उसके प्रकारों का। अदुःखासुखा पर मज्झिम, १.३९७. पञ्च कायिकी चतसो परा। .