पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३४६

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अभिधर्मकोश पाँच वेदनायें जो चक्षु और अन्य रूपी इन्द्रियों के संस्पर्श से उत्पन्न होती हैं और जिनका आश्रय रूपी इन्द्रिय हैं कायिकी कहलाती हैं । छठी वेदना मनःसंस्पर्श से उत्पन्न होती है : उसका आश्रय चित्त, चेतस् है । अतः यह चैतसी है। सौत्रान्तिक का प्रश्न है कि वेदना स्पर्श से उत्तर है या उसकी सहभू है। वैभाषिक का मत है कि वेदना और स्पर्श सहभू हैं क्योंकि वह सहभूहेतु हैं (२.५० सी)। सौत्रान्तिक-दो सहोत्पन्न धर्म कैसे जनक और जन्य (जनित) हो सकते हैं ? वैभाषिक क्यों न होंगे? सौत्रान्तिक--जब दो धर्म सहोत्पन्न होते हैं तो जनक धर्म का उस जन्य धर्म में कैसे सामर्थ्य हो सकता है जो जात है ? वैभाषिक---यह साधन इस प्रतिज्ञा से विशिष्ट नहीं है कि दो सहोत्पन्न धर्म जनक [१०२] और जन्य नहीं हो सकते। सौत्रान्तिक अतः यदि यह साधन इष्ट नहीं है तो आपके विकल्प में दो सहोत्पन्न धर्मों का अन्योन्यजनकभाव होगा। वैभाषिक-किन्तु यह दोष नहीं है क्योंकि हमको यह इष्ट है। हम सहभूहेतु का यह निर्देश करते हैं : ये मिथःफलाः, "जो धर्म परस्पर फल हैं वह सहभूहेतु है” (२.५० सी)। सौत्रान्तिक-भले ही यह आपके सिद्धान्त को इष्ट हो। किन्तु सूत्र को यह अनिष्ट है। सूत्र वचन है : "चक्षुःसंस्पर्शप्रत्ययवश चक्षुःसंस्पर्शज वेदना उत्पन्न होती है।" सूत्र यह नहीं कहता है कि "चक्षुःसंस्पर्शजवेदनावश चक्षुःसंस्पर्श उत्पन्न होता है ।"-पुनः यह प्रतिज्ञा कि "दो सहोत्पन्न धर्मो का कार्यकारणभाव होता है " अयुक्त है क्योंकि यह जनक धर्म का अतिक्रम करता है । यह प्रसिद्ध है कि जो धर्म अन्य धर्म का जनक होता है वह उस अन्य धर्म का सहभू नहीं होता। इनका काल भिन्न होता है : यथा पूर्व बीज होता है, पश्चात् अंकुर होता है ; पूर्व दुग्ध होता है, पश्चात् दधि होता है; प्रतिघात होता है, पश्चात् शब्द होता है; पूर्व मनस् होता है, पश्चात् मनोविज्ञान (१.१७) होता है। वैभाषिक-हम इसका प्रतिषेध नहीं करते कि कभी कारण कार्य के पूर्व होता है किन्तु हमारी प्रतिज्ञा है कि कार्य और कारण सहभू हो सकते हैं। चक्षुरिन्द्रिय और रूप और चक्षु- विज्ञान; महाभूत और भौतिक (उपादायरूप)। सौत्रान्तिक-हम आपके दृष्टान्तों को नहीं मानते। चक्षुरिन्द्रिय और रूप चक्षुर्विज्ञान के पूर्व होते हैं। महाभूत और भौतिक जो सहभू हैं पूर्वहेतुसामग्री से सहोत्पन्न होते हैं। वैभाषिक-स्पर्श और वेदना सहभू हैं यथा छाया और अंकुर । एक दूसरे मत के अनुसार [१०३] [भदन्त श्रीलाभ]-वेदना स्पर्श के उत्तरकाल में होती है। इन्द्रिय और अर्थ पूर्व सौत्रान्तिक उत्तर नहीं देता क्योंकि २.५० सी, अनुवाद पृ०२५३ में छाया और अंकुर के अर्थ पर विचार हो चुका है।