पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३४७

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सृतीय कोशस्थान लोकनिर्देश (प्रथम क्षण) होते हैं। पश्चात् विज्ञान होता है (द्वितीय क्षण); स्पर्श इन तीन का संनिपात है : यह इन तीन का जनितजनकभाव है-इन्द्रिय और अर्थ और विज्ञान; (तृतीय क्षण में) वेदना जिसका हेतु स्पर्श है। वैभाषिक---इस वाद में विज्ञान में सर्वत्र वेदना नहीं है क्योंकि विज्ञान द्वितीय और तृतीय क्षण में होता है, वेदना केवल तृतीय में होती है। और सर्व विज्ञान स्पर्श नहीं है क्योंकि स्पर्श केवल प्रथम दो भणों में होता है। श्रीलाभ-यह दोष नहीं है। पूर्वस्पर्शहेतुका वेदना उत्तर स्पर्श के क्षण में होती है। अतः सर्व स्पर्श सवेदनक है। वैभाषिक-आपके अनुसार स्पर्श और वेदना के भिन्न आलम्वन होंगे किन्तु वह सहभू होंगे। रूपालम्बनपूर्वस्पर्शहेतुका वेदना शब्दालम्बनोत्तर स्पर्शकाल में होगी। यह भयुक्त है। रूपा- लम्बनस्पर्श से संभूत वंदना का आलम्बन रूप होना चाहिये क्योंकि वेदना का आलम्बन तत्संप्रयुक्त चित्त के आलम्बन से अन्य नहीं हो सकता [और इस रूपसंभूत चित्त का आलम्बन रूप होना चाहिये] । अतः आपका मत सदोष है। श्रीलाभ-अतः हमको कहना चाहिये कि विज्ञान सदा स्पर्श नहीं है, सदा वेदनासहगत नहीं है। रूप का जो विज्ञान शब्दालम्वनकाल में होता है वह सवेदनक है किन्तु स्पर्श नहीं है। स्पर्शभूत शब्दविज्ञान अवेदनक है। [१०४] वैभाषिक-यह वाद सर्वत्रग धर्म या महाभूमिकों के नियम (२.२३ सी-डी) को भिन्न करता है। यह नियम व्यवस्थापित करता है कि वेदना, स्पर्श, संज्ञा आदि दस धर्म सर्व- चित्त से संप्रयुक्त है। श्रीलाभ-यह नियम किस प्रमाण पर आश्रित है ? वैभाषिक-शास्त्र या अभिधर्म पर।' श्रीलाभ-हम सूत्र को प्रमाण मानते हैं, शास्त्र को नहीं क्योंकि भगवत् ने कहा है कि सूत्र प्रतिसरण है (सूत्रं प्रतिसरणम्) । अथवा हम महाभूमिकवाद का आपसे एक भिन्न अर्थ करते हैं। स्पर्शादुत्तरकालं वेदनेति अपरः।.. ..सोऽसौ त्रयाणां संनिपातः स्पर्शः। वेदना तृतीये क्षणे। [व्या ३०७.१७] २न सर्वत्र विज्ञाने वेदना प्राप्नोति न च सर्व विज्ञानं स्पर्शः। [च्या ३०७.२०] । नायं दोषः। पूर्वस्पर्शहेतुका ह्य त्तरत्र स्पर्श वेदना । एवं सर्वत्र विज्ञाने वेदना प्राप्नोति सर्व च विज्ञानं स्पर्शः। [व्या ३०७.२२] भिन्नालम्बनयोः पूर्वस्पर्शहतुका उत्तरत्र स्परों वेदनेत्ययुक्तम् । कयं हि नामान्यजातीया- लम्बनस्पर्शसंभूता वेदना मन्यालम्बना भविष्यति । येन वा चित्तेन संप्रयुक्ता ततो भिन्ना- लम्बना । व्या ३०७.२८]] प्रकरण, २.१२। संयुक्त ,८, ४-साएको नैनजियो ११२१ को उद्धृत करते हैं (विनयक्षुद्रकवस्तु, सिलवा लेवी, साएज अहंस, पृ०, ३७) जहाँ भगवत् आनन्द को अगुत्तर, २.१६७के चार नियमों का उपदेश देते हैं। कोश, ९, अनुवाद पृ० २४६ देखिये। २२ १ 3 २